Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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जानता है उस ज्ञानका विषय अन्य व्यापकरूप अर्थ नहीं कल्पना किया जासकता है। किन्तु यह इसके समान है ऐसा ज्ञान तो व्यापक वस्तुको विषय करता है, यानी अनेक व्यक्तियोंमें हो जाता है। कुछ थोडीसी ही परिमित व्यक्तियोंको विषय नहीं करता है। अतः व्यक्तिसे भिन्न किसी दूसरे अर्थको विषय करने वाला हो जावेगा और वह व्यक्तियोंसे भिन्न दूसरा पदार्थ तो नित्य जाति ही है। वह जातिरूप सामान्य पदार्थ प्रत्यक्ष प्रमाणसे भी जाना जाता है। अन्यथा यानी सामान्यका प्रत्यक्षसे ज्ञान होना नहीं माना जावेगा तो उस सामान्यको प्रयत्नके पीछे सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्तिसे प्रत्यय किया जानापन नहीं घटित होगा। जैसे नील, पीत आदिक गुण पुरुषार्थ करके प्रत्यक्षसे जान लिये जाते हैं, तैसे ही प्रयत्न करनेपर सामान्यका ज्ञान हो जाता है । अर्थात्-यदि सामान्य नील, पीत खरूप ही मान लिया जावेगा तो उसको जाननेके लिये आत्माको न्यारा प्रयत्न न करना पडेगा। जिस ज्ञानसे नीलको जाना है उसीसे घटत्व, नीलत्व आदि सामान्यको भी जान लेगा, किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता है। नीलको जान चुकनेपर भी पीछेसे विशेष प्रयत्न करके सामान्यको जान पाते हैं या उसी समय विशेष पुरुषार्थसे जातिको जानते हैं। अतः सामान्य पदार्थ विशेषोंसे भिन्न है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार उन वैशेषिकोंका कहना सत्य नहीं है कारण कि
सामान्यस्य विशेषवत्सत्यक्षत्वेऽपि यत्नोपनीयमानप्रत्ययत्वाविरोधात् । प्रमाणसंप्लवस्यैकत्रार्ये व्यवस्थापनात् । . सदृशपरिणामरूप सामान्यको विशेष व्यक्तिके समान प्रत्यक्षका विषयपना मानते हुए भी प्रयत्नके द्वारा चलाकर जान लेने की विषयताका कोई विरोध नहीं है । क्योंकि नैयायिक, जैन, मीमांसक ये सब प्रमाणसंप्लवको स्वीकार करते हैं । “एकस्मिन्नर्थे विशेषविशेषांशावगाहिनां बहूनां प्रमाणानां प्रवृत्तिः प्रमाणसंप्लवः " एक अर्थमें बहुतसे अपूर्वार्थमाही प्रमाणोंकी प्रवृत्ति होना प्रमाणसंप्लव कहलाता है । नील या घटको जानकर उससे अभिन्न सदृश परिणामरूप सामान्यको जाननेके लिये प्रयत्नपूर्वक दूसरा ज्ञान उठाया और उसके द्वारा वस्तुसे अभिन्न माने गये सामान्यको पुनः जान लिया । इतनेसे ही वह सामान्य अर्थान्तर नहीं हो जाता है । एक अग्निमें आगम, अनुमान, प्रत्यक्ष इन तीन प्रमाणोंके प्रवृत्त हो जानेसे अग्नि भिन्न भिन्न नहीं हो जाती है । हां! स्वभावभेद भले ही हो जावें । एक अर्थमें अनेक प्रमाणोंके प्रवृत्त होनेकी व्यवस्था मानी नयी है । अतः पुरुषार्थ करके भले ही जातिको स्वतन्त्ररूपसे जान लो । किन्तु एतावता वह चौथा निराला पदार्थ (तत्त्व) नहीं माना जा सकता है, वह व्यक्तियोंसे अभिन्न है । वस्तुमें तदात्मक होकर गुंथरही असंख्य अर्थपर्यायें भी विवक्षितज्ञानसे नहीं जानी जारही हैं । क्या करें।
सामान्यमेव परिच्छिद्यमानस्वरूपं न विशेषास्तेषां व्यावृत्तिप्रत्ययानुमेयत्वादिति बदतो निषेदुमशक्त।
यदि आप दण्डी, नील, पीत, आदिके ज्ञानोंमें विशेषको ही जानने योग्य वस्तुका स्वरूप