Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थ लोकवार्तिके
i
मानेंगे और सामान्यको अर्थान्तर स्वीकार करेंगे तो कोई यों भी कह सकता है कि सामान्य ही जानने योग्य वस्तुका स्वरूप है विशेष पदार्थ कोई नहीं हैं। काली गौ धौली गौसे पृथक् है । भैंससे गौ पृथक् है, इत्यादि व्यावृत्तिको जाननेवाले ज्ञानोंसे उन विशेषोंका पीछे अनुमान कर लिया जाता है, विशेषका प्रत्यक्ष नहीं होने पाता है, ऐसे कहनेवालोंका भी तुम निषेध नहीं कर सकते हो । नये नये स्वरचित सिद्धान्तोंको गढनेवालोंका मुंह नहीं पकड़ा जा सकता है ।
न हि वस्तुस्वरूपमेव व्यावर्तमानाकारप्रत्ययस्य निबन्धनं अपि तु तत्संसर्गिणोर्थास्ते च भेदहेतवो यदा सकलास्तिरयन्ते तदा सद्वस्तु पदार्थ इति वा निरुपाधिसामान्यप्रत्ययः प्रसूते, यदा तु गुणकर्मभ्यां भेदहेतवो अतिरोभूताः शेषास्तिरोधीयन्ते तदा द्रव्यमिति बुद्धिरेवमवान्तरसामान्येष्वशेषेष्वपि बुद्धयः प्रवर्तन्ते भेदहेतूनां पुनराविर्भूतानां वस्तुना संसर्गे तत्र विशेषप्रत्ययः । तथा च सामान्यमेव वस्तुस्वरूपं विशेषास्तूपाधिबलावलम्बिन इति मतान्तरमुपतिष्ठेत ।
वस्तुका जानने योग्य स्वरूप ही पृथग्भूत हुए आकारका उल्लेख करानेवाले ज्ञानका कारण है । अतः विशेष पदार्थ ही वस्तुका तादात्मकरूप है, सामान्य वस्तुभूत नहीं है, यह नहीं समझ बैठना, किन्तु उस वस्तुस्वरूपसे सम्बन्ध रखनेवाले जो पदार्थ (काला, नीला, मतिज्ञान, घटज्ञान आदि ) हैं, वे सर्व पदार्थ भी तो भेद ( व्यावृत्ति ) के कारण हैं। जिस समय भेदके कारण संपूर्ण छिप जाते हैं तब सामान्यधर्मोकी अपेक्षासे सत् है, वस्तु है, पदार्थ है, प्रमेय है। इस प्रकारका निर्विशेष सामान्यज्ञान उत्पन्न हो जाता है । किन्तु जिस समय गुण और क्रियासे भेदके कारण प्रगट हो जाते हैं, तथा शेष शुद्ध, व्यापक, सामान्य छिप जाते हैं, तब तो द्रव्य है, जीव हैं, इस प्रकारकी उपाधिक सहित बुद्धि ही उत्पन्न होती है। इसके मध्यवर्ती सम्पूर्ण सामान्योंमें भी तैसी तैसी बुद्धियां प्रवर्तती रहती हैं । फिर प्रगट हुए भेदके कारणोंका वस्तुके साथ सम्बन्ध हो जानेपर वहां विशेष ज्ञान हो जाता है । अतः विशेषको जाननेके लिये चलाकर यत्नसे ज्ञान करनेकी आवश्यकता है। सामान्यको जाननेके लिये बाहिरके पुंछल्ले लगानेकी आवश्यकता नहीं है । तिस कारण यों सिद्ध होता है कि सामान्य ही वस्तुके गांठका स्वरूप है । और विशेष तो इधर उधरके विशेषणोंके सामर्थ्यका अवलम्ब रखते हुए औपाधिक भाव आ कूदे हैं, वास्तविक नहीं। इस प्रकारका भी एक भिन्नमत ( सिद्धान्त ) उपस्थित हो जावेगा । किसी भी धर्मकी पुष्टि करानेके लिये उसके विरुद्ध माने हुए धर्मका खण्डन कर देना अच्छा उपाय है। अतः अन्तमें जाकर आपको विशेषके समान सामान्य भी वस्तुका तदात्मक रूप इष्ट करना पडेगा ।
१९०
A
. वस्तुविशेषा नोपाधिका यत्नोपनेयप्रत्ययत्वाभावात् स्वयं प्रतीयमानत्वादिति चेत् तत एव सामान्यमौपाधिकं माभूत् । सामान्यविशेषयोर्वस्तुस्वभावत्वे सर्वत्रो भयप्रत्यय प्रसक्तिरिति चेत् किं पुनस्तयोरेकतरमत्यय एव कचिदस्ति