Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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किसीको अनादि अनन्त वस्तुके ज्ञान होनेका प्रसंग होगा। भावार्थ-अतीत, अनागत, अनन्त परिणमनोंके अविष्वग्भाव सम्बन्धरूप पिण्डको वस्तु कहते हैं । किसी भी वस्तुको देखकर उसके अनादि अनन्तपर्यायोंका ज्ञान हो जाना चाहिये । बौद्धोंके सिद्धान्तानुसार दान करनेवाले जीवोंमें स्वर्गको प्राप्त करानेवाली शक्ति मानी गयी है, क्षणिकत्वशक्ति भी पदार्थमें विद्यमान हैं और भी अनेक अतीन्द्रिय धर्म हैं । किन्तु चित्त ( आत्मा ) का प्रत्यक्ष करते समय इन अतीन्द्रिय शक्तियोंका तो प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है। तभी तो बौद्ध जन शक्तियोंको जाननेके लिये अनुमान प्रमाण उठाते हैं। यदि जैसी वस्तु है ठीक वैसा ही उसका ज्ञान माना जावेगा तो दूसरे यानी बौद्धोंको निर्विकल्पक प्रत्यक्षद्वारा ही स्वर्गप्रापणशक्ति तथा हिंसा करनेवाले चित्तकी नरकप्रापणशक्ति आदिका भी निर्णय उसी समय हो जाना चाहिये । जो कि दूसरोंने माना नहीं है। और यों तो संसारसे सर्ब मिथ्याज्ञान उठ जावेंगे । जैसी वस्तु होगी वैसा ही सबको ज्ञान हो सकेगा।
ततो विशेषप्रत्ययाद्विशेषमुररीकुर्वता समानप्रत्ययात्सामान्यमुररीकर्तव्यमिति प्रतीति प्रसिद्धा जातिनिमित्तान्तरं तथा द्रव्यं वक्ष्यमाणं गुणाः क्रिया च प्रतीतिसिद्धेति न तन्निमित्तान्तरत्वसिद्धं वऋभिप्रायात् येन कल्पनारोपितानामेव जात्यादीनां शद्धैरभिधानात कल्पनैव शद्वानां विषयः स्यात्, पंचतयी वा शद्धानां प्रवृत्तिरबाधिता न भवेत् ।
तिस कारण सिद्ध हो जाता है कि विशेषको जाननेवाले ज्ञानकी सामर्थ्यसे विशेष पदार्थको स्वीकार करनेवाले बौद्धों करके समीचीन समानज्ञानसे निर्णीत किये गये सामान्य (सादृश्य) को भी स्वीकार कर लेना चाहिये । इस प्रकार प्रतीतियोंसे प्रसिद्ध हुयी जाति ( सदृश परिणाम ) नाम निक्षेपका निमित्तान्तर हो जाती है । अतः वक्ताके अभिप्रायको निमित्त पाकर और सदृश परिणाम रूप जातिको निमित्तान्तर मानकर गौ, अश्व, मनुष्य आदि शब्द प्रवृत्त हो रहे हैं । तैसे ही भविध्यमें कहे जाने योग्य सत् रूप द्रव्य और सहभावी परिणामरूप गुण तथा परिस्पन्दरूप क्रियायें भी प्रामाणिक प्रतीतियोंसे प्रसिद्ध हैं इस कारण निमित्तरूप वक्ताके अभिप्रायसे निराले. द्रव्य, गुण और क्रियाओंको द्रव्यशद, गुणशब्द और क्रियाशद्वोंका निमित्तान्तरपना असिद्ध नहीं है, जिससे कि शद्वको प्रमाण न माननेवाले बौद्धोंके मतानुसार कल्पनामें आरोपित किये गये ही जाति, द्रव्य, गुण, और क्रियाओंका शब्दोंके द्वारा कथन किये जानेसे कल्पना ही शद्बोंका विषय होती और शब्दोंकी पांच प्रकारसे हो रही प्रवृत्ति बाधा रहित न होने पाती । अर्थात् जाति, गुण, क्रिया, संयोगीसमवायीद्रव्य यदृच्छा ये सब वास्तविक पदार्थ हैं, उनको कहनेवाले पांच प्रकारके शद्बोंकी निर्बाध प्रवृत्ति हो रही है । यहांतक सदृश परिणामरूप जातिको सिद्ध करते हुए शद्बोंकी प्रवृत्तिका मुख्य कारण माने गये वास्तविक जाति, द्रव्य, आदिकका निरूपण कर दिया है।
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