Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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शरीर, वचन और मनकी क्रियारूप आस्रव होना सर्वदा ( कभी भी ) नहीं सम्भवता, क्योंकि आत्मा तो क्रियासे रहित है जो जो क्रियाओंसे रहित है उस द्रव्यके आस्रव नहीं होता है। जैसे कि आकाशके। अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार वैशेषिकोंका कहना झूठा है। क्योंकि आत्माके उस क्रियारहितपनेकी सिद्धि नहीं हो सकती है । प्रत्युत आत्माको क्रियावान् सिद्ध करनेका यह अनुमान है कि आत्मा ( पक्ष ) क्रियावान् है ( साध्य ) । सर्वत्र नहीं वर्त्त रहा अव्यापक द्रव्य होनेसे (हेतु)। जैसे पृथ्वी, जल आदि अव्यापक द्रव्य हैं (अन्वयदृष्टान्त ) अतः क्रियायुक्त है । इस अनुमानमें हमारी ओरसे दिया गया अव्यापक द्रव्यपनारूप हेतु स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे सिद्ध ही है । भावार्थ-सभी जीव अपनी अपनी आत्माको शरीरके अनुसार लम्बा, चौडा, मोटा, परिमाणवाला जान रहे हैं । जो मध्यम परिमाणवाले या अणुपरिमाणवाले पदार्थ हैं वे देशसे देशान्तर जानारूप या कम्परूप क्रियाको कर सकते हैं। हां ! जो व्यापक आकाश द्रव्य है या लोकाकाशमें व्यापक धर्म,अधर्म द्रव्य हैं, वे अवश्य क्रियारहित हैं, आत्मा तो क्रियासहित है ।
न हि क्रियावत्वे साध्ये पुरुषस्यासर्वगतद्रव्यत्वं साधनमसिद्धं तस्य स्वसंवेद्यत्वात् पृथिव्यादिवत् ।
आत्माको क्रियावान्पना सिद्ध करनेमें दिया गया अव्यापक द्रव्यपना हेतु कैसे भी असिद्ध नहीं है । अर्थात् आत्मस्वरूप पक्षमें अव्यापक द्रव्यपना रह जाता है । उसका स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे ज्ञान कर लेते हैं, जैसे कि चक्षुः, स्पर्शन, इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षसे घट, पट आदि पृथिवियों का कटोरे या सरोवरके पानीका अथवा अग्नि, वायु द्रव्योंका अव्यापकपना जान लेते हैं।
भ्रान्तमसर्वगतद्रव्यत्वेनात्मनः संवेदनमिति चेत् न, बाधकाभावात् । सर्वगत आत्माऽमूर्तत्वादाकाशवदित्येतद्वाधकमिति चेन, अस्य प्रतिवादिनां कालेनानेकान्तात् । कालोऽपि सर्वगतस्तत एव तद्वदिति नात्र पक्षस्यानुमानागमबाधितत्वम् । तथाहि
वैशेषिक कहते हैं कि सभी आत्माएं व्यापक द्रव्य हैं । अतः आत्माको अव्यापक द्रव्यपने करके जानना भ्रान्त ज्ञान है। आचार्य समझाते हैं कि यह तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि भ्रान्त ज्ञान वे होते हैं जिनके विषयको बाधनेवाला उत्तरकालमें बाधक प्रत्यय उत्पन्न होजाता है। जैसे कि सीपमें उत्पन्न हुए चांदीके ज्ञानका बाधक उत्तरकालमें " यह चांदी नहीं" ऐसा बाधक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । बाधकके द्वारा बाधे गये ज्ञानको भ्रान्त ज्ञान कहते हैं। किन्तु यहां आत्माके अव्यापकपनेको जाननेवाले स्वसंवेदन प्रत्यक्षका कोई बाधक प्रमाण नहीं है । यदि वैशेषिक यों कहें कि आत्मा ( पक्ष ) व्यापक है ( साध्य )। अमूर्त होनेसे ( हेतु ) आकाशके समान ( दृष्टान्त ) इस प्रकार यह अनुमान उस स्याद्वादियोंके प्रत्यक्षका बाधक है । ग्रन्थकार बोलते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है, क्योंके इस हेतुका प्रतिवादी जैनोंके द्वारा माने गये कालद्रव्यसे व्यभिचार हो जाता है । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श स्वरूप मूर्तिसे रहित होनेके कारण कालद्रव्य अमूर्त है, किन्तु वह र.र्व