Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
अकलङ्कदेवने जायते, अस्ति विपरिणमते, वर्द्धते, अपक्षयते, विनश्यति, ये भावोंकी छह परिणतियां मानी हैं। अश्वविषाणके समान आपके माने हुए स्वलक्षणका ज्ञानमें विषय पडनेपनेसे खण्डन कर दिया जावेगा । अर्थात् वह किसी भी ज्ञानमें विषय नहीं हो सकता है । वह स्वलक्षण पदार्थ जगत्में वस्तुभूत है. भी तो नहीं । तो फिर ज्ञान किसका ?। .... . सविकल्पप्रत्यक्षे सदृशपरिणामस्य स्पष्टमवभासनात् सर्वथा बाधकाभावात् । वृत्तिविकल्पादिदषणस्यात्रानवतारात् । न हि सदृशपरिणामो विशेषेभ्योऽत्यन्तं भिन्नो नाप्यभिन्नो येन भेदाभेदैकान्तदोषोपपातः । कथञ्चिद्भेदाभेदात् । न च तेषु तस्य कथञ्चित्तादात्म्यादन्या वृत्तिरेकदेशेन सर्वात्मना वा यतः सावयवत्वं सादृश्यपरिणामस्य व्यक्त्यन्तरा वृत्तिर्वा स्यात् ।
प्रमाणरूप सविकल्पक प्रत्यक्षमें सदृशपरिणाम ( सामान्य ) का स्पष्ट रूपसे प्रकाश हो रहा है । सभी प्रकारोंसे इसमें बाधक प्रमाणोंका अभाव है। वह सामान्य अपने आधारभूत वस्तुमें किस सम्बन्धसे तथा कहां किस प्रकार ठहरेगा। ऐसे वृत्ति ( सम्बन्ध ) के विकल्प उठाना आदि दोषोंका यहां अवतार नहीं है । हम स्याद्वादीजन विशेष व्यक्तियोंसे सदृश परिणामको सर्वथा. भिन्न नहीं मानते हैं, और व्यक्तियोंसे सर्वथा अभिन्न भी नहीं मानते हैं, जिससे कि नैयायिकोंके ऊपर भेदके एकान्त माननेपर आये हुए दोष हमारे ऊपर भी लागू हो जावें। अथवा कापिलोंके ऊपर अभेद वादके अनुसार आये हुए दोष हमारे ऊपर भी गिर सकें । निर्णय यह है कि हम लोग कथञ्चित् भेद अभेदसे व्यक्तियोंमें सादृश्यस्वरूप जातिकी वृत्ति मानते हैं, इसीका नाम कथञ्चित् तादात्म्य है। उन विशेष व्यक्तियोंमें उस सदृशपरिणामरूप जातिका वर्तना ( सम्बन्ध ) कथंचित् तादात्म्य सम्बग्धसे निराला नहीं है । यदि सादृश्य परिणामकी एकदेश ( अंश) करके भिन्न भिन्न व्यक्तियोंमें वृत्ति मानी जावेगी ऐसी दशामें तो सदृश परिणामको सावयवपनेका प्रसंग होगा। भावार्थ—जैसे कि सीधे ( जीमने ) हाथके पञ्चागुलको डेरे हाथके पञ्चागुलके ऊपर रखा जाता है, तो वह एक एक अंगुलीरूप अंशसे दूसरे हाथकी अंगुलियोंके ऊपर ठहरता है । ऐसी दशामें आधेयरूप सीधे हाथका पञ्चांगुल सावयवरूप है । अथवा एक अंगरखा भिन्न भिन्न अवयवोंसे शरीरके . अनेक अवयवोंपर संयुक्त होरहा है, अतः वह अंगरखा सावयव है। ऐसे ही गोत्वका कुछ अंश आगरेमें बैठी हुयी गौमें माना जावे और अन्य अंश सहारनपुरकी गौमें स्थित रहे, तीसरा अंश पटनाकी गौमें रहे, ऐसा माननेपर नैयायिकोंके सामान्यमें अवश्य अवयव सहितपनेका प्रसंग आता है । किन्तु हम जैन लोगोंके ऊपर नहीं। क्योंकि आगरेकी गौका सामान्य वहींकी गौमें है और सहारनपुरकी गौका सदृशपरिणाम सहारनपुरकी गौमें ही है, अन्वयज्ञान हो जानेसे सदृशपनेका व्यवहार है । -सुन्दर मुखके धर्म सुखमें ही हैं, चन्द्रमामें नहीं और चन्द्रमाके स्वभाव चन्द्रमामें ही हैं, मुखमें नहीं। गोलपना और आल्हादकपनेसे मुखकी उपमा चन्द्रमासे है, वस्तुतः सामान्य धर्म व्यक्तिरूप ही है ।