Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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तर्हि सामान्यं समानप्रत्ययविषयो न स्यात् व्यक्त्यात्मकत्वाद्व्यक्तिस्वात्मवदिति चेत् न, सदृशपरिणामस्य व्यक्तेः कथञ्चिद्भेदप्रतीतेः । प्रथममेकव्यक्तावपि सदृशपरिणामः समानप्रत्ययविषयः स्यादिति चेत् न, अनेकव्यक्तिगतस्यैवानेकस्य सदृशपरिणामस्य समानमत्ययविषयतया प्रतीतेः विशेषप्रत्ययविषयतया वैसदृशपरिणामवत् ।
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यहां कोई कहते हैं कि तब तो यह इसके समान है, यह इसके समान है, इस प्रकार समान ज्ञानका विषय सामान्य पदार्थ न हो सकेगा । क्योंकि वह सामान्य व्यक्तियोंसे तदात्मक है । जैसे कि व्यक्तिका अपना व्यक्तिस्वरूप आत्मा सर्वथा एक व्यक्ति होनेसे अन्वयरूप करके समानज्ञानका विषय नहीं है । एक घटव्यक्ति अनेक घटोंमें अपने डीलसे अन्वित नहीं हो सकती है । ऐसे ही व्यक्तिरूप सामान्य भी अन्वय ज्ञान न करा सकेगा । ग्रन्थकार बोलते हैं कि इस प्रकारका कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि सदृश परिणामका व्यक्तिसे कथञ्चित् भेद प्रतीत हो रहा है। यानी व्यक्ति और सदृशरूप पर्यायका सर्वथा अभेद नहीं है । भावार्थ — एक व्यक्ति व्यक्त्यन्तर में भले ही अन्वित न होवे । किन्तु व्यक्तिसे कथञ्चित् भिन्न सामान्य अनेक व्यक्तिओंमें ओतप्रोत होकर रह सकता है । यहां कोई यों कहे कि यदि व्यक्तिरूप ही जाति मानी जावेगी तो अकेली विशेष व्यक्ति मैं भी पहिले से ही वह सादृश्यपरिणामरूप जाति समानज्ञानका विषय हो जावे यानी केवल एक ही व्यक्तिके देखने पर यह समान है । ऐसा ज्ञान हो जाना चाहिए। क्योंकि आप जैनोंके मन्तव्यानुसार एक व्यक्तिमें पूरा सदृशपरिणामरूप समान्य पहिलेसे ही विद्यमान है । अब आचार्य कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि आप बौद्ध या नैयायिकोंने भी विसदृश परिणाम रूप विशेषको एक व्यक्तिमें ही रहनेवाला स्वीकार किया है । फिर भी अन्य की अपेक्षासे ही यह इससे विशेष है । यह इससे विलक्षण है । ऐसे ही विसदृश परिणामको विशेष ज्ञानके विषयपनेसे स्वीकार किया है । तैसे ही यहां अनेक व्यक्तियोंमें रहनेवाले न्यारे न्यारे अनेक विशेष, जैसे विशेष ज्ञानके विषय हैं तैसे ही अनेक व्यक्तियोंमें निज निज सम्बन्धी प्राप्त हुए अनेक सदृश परिणामोंकी • समान ज्ञानके विषयपनेसे प्रतीति हो रही है । भावार्थ - अनेक सामान्य ही अनेक व्यक्तियों में समान है, या इसके समान है, ऐसा ज्ञान कराते हैं । एक सामान्य नहीं । वैशेषिकोंने द्वित्व संख्याको समवाय सम्बन्धसे एक एक व्यक्ति में न्यारा रहता माना है। फिर भी दो व्यक्तियोंके होने पर ही " दो " ऐसा ज्ञान होगा, अकेले में नहीं ।
ननु च प्रतिव्यक्तिभिन्नो यदि सदृशपरिणामः परं सदृशपरिणाममपेक्ष्य समानप्रत्ययविषयस्तदा व्यक्तिरेव परां व्यक्तिमपेक्ष्य तथास्तु विशेषाभावादलं सदृशपरिणामकल्पनयेति चेत् न, विसदृशव्यक्तेरपि व्यक्त्यन्तरापेक्षया समानप्रत्ययविषयत्वप्रसंगात्, तथा च दधिकरभादयोपि समाना इति प्रतीयरेन् ।