Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
व्यक्तियोंमें रहने वाला समान परिणाम तो वहां है ही। आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो तुम ही बतलाओ कि तुम्हारी मानी हुयी नियमित व्यक्तियोंमें रहनेवाली ही कोई कोई शक्तियां कैसे समानज्ञानके विषयपनेकी कारण है ? इस प्रकार तुम्हारे ऊपर भी हमारी ओरसे प्रश्न करनेका अवसर समान है । यदि तुम कहोगे कि शक्तियां तो व्यक्तियोंके निजात्मस्वरूप हो रहीं सन्ती ही अपने अपने कारणसे तिस प्रकारकी उत्पन्न हो गयीं हैं । ऐसा कहने पर तो हमारे माने हुए सदृश परिणाम भी तिस ही प्रकार अपने कारणोंसे उत्पन्न हुए समानज्ञानके हेतु हो जाओ । अर्थात् जिन कारणोंसे गौ उत्पन्न होती है उन्ही कारणोंसे गौके सदृश परिणाम भी उत्पन्न हो जाते हैं । वे गौओं में समानज्ञान कराने कारण हैं, विसमान व्यक्तियोंमें नहीं ।
ननु च यथा व्यक्तयः समाना एता इति प्रत्ययस्तत्समानपरिणामविषयस्तया समानपरिणामा एते इति तत्र समानप्रत्ययोपि तदपरसमानपरिणामहेतुरस्तु । तथा चानवस्थानम् । यदि पुनः समानपरिणामेषु स्वसमानपरिणामाभावेऽपि समानप्रत्ययस्तदा खण्डादिव्यक्तिषु किं समानपरिणामकल्पनया। नित्यैकव्यापिसामान्यवत्तदनुपपत्तेरिति चेत् कथमिदानीमर्थानां विसदृशपरिणामा विशेषप्रत्ययविषयाः ? स्वविसदृशपरिणामान्तरेभ्य इति चेदनवस्थानम् । स्वत एवेति चेत्सर्वत्र विसदृशपरिकल्पनानर्थक्यम् ।
पुनः किसीकी शंका है कि जैसे कि ये ( अनेक गौ ) व्यक्तियां समान हैं, इस प्रकारका ज्ञान समानपरिणतिको विषय करनेवाला है, तैसे ही ये ( अनेक गौओंमें रहनेवाले ) समान परिणाम हैं। इस प्रकारका उन समानपरिणामोंमें होनेवाला समान ज्ञान भी उनसे न्यारे दूसरे समानपरिणामोंको कारण मान कर होगा और उन दूसरे समान परिणामोंमें भी समानज्ञान तीसरे समानपरिणामोंको कारण मानकर होगा । तैसा होते होते अनवस्था दोष हो जावेगा। अनवस्था दोषके निवारणके लिये फिर यदि समान परिणामोंमें अन्य अपने समान परिणामोंके विना भी समानज्ञान हो जाना मान लोगे तब तो खण्ड, मुण्ड, शाबलेय, बाहुलेय आदि गौव्यक्तियोंमें भी अपने समान परिणामके विना ही समानज्ञान हो जावेगा। ऐसी दशामें सादृश्यरूप समान परिणामकी कल्पनासे क्या लाभ है ? अर्थात् कुछ नहीं । जैसे वैशेषिकोंका माना गया गया नित्य एक और अनेक व्यक्तियोंमें व्यापक माना गया सामान्य ( जाति ) पदार्थ नहीं बनता है, उसीके समान आप जैनोंसे माना गया वह सदृशपरिणाम भी सिद्ध नहीं हो पाता है । अब ग्रन्थकार समझाते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो हम जैन कहते हैं कि इस समय पदार्थोके विसमानपरिणामज्ञानके हेतुरूप विशेष कैसे सिद्ध हो सकेंगे ? ये व्यक्तियां परस्परमें विशेषतायुक्त हैं, विशिष्ट हैं, विलक्षण हैं, जिस प्रकार विशेषज्ञानके लिये विसदृश परिणामोंकी आवश्यकता है। उसी प्रकार विसहशपरिणामोंको भी परस्परमें विशेषता लानेके लिये अपनेसे अतिरिक्त दूसरे विसदृश परिणामोंकी आकांक्षा होगी। वे विसदृशपरिणाम भी अन्य तीसरे विसदृश परिणामोंसे ही विशेषतायुक्त हो सकेंगे।