Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
•
तार्थीचन्तामणिः
१८३
सत्त्व, प्रमेयत्व आदि धर्मोकी अपेक्षासे श्वेत अश्व, रोझ, महिष आदि भी सदृश हैं । अतः यहां भी समानपनेका ज्ञान हो जाना चाहिये । अनेक गोव्यक्तियोंके सदृश कर्क आदिकों में भी भेद वैसा ही है कोई अन्तर नहीं है । उसका अन्तर न होते हुए भी उस सदृश परिणामकी तैसी एक शक्ति मानोगे जिस शक्तिसे कि कोई विवक्षित ही सदृशपरिणामको निकट कारण मानकर के तिस प्रकार समान ज्ञान होता है। सभी यहां वहांके सदृश परिणामोंकी अपेक्षा करके समान ज्ञान नहीं होता है । इस प्रकार नियमकी कल्पना करनेपर तो दहीरूप व्यक्ति भी अन्य दहीरूप अनेक व्यक्तियोंकी अपेक्षा करके दधिपनेके ज्ञानकी विषयताको प्राप्त हो जाओ ! क्योंकि तैसी शक्तिका मेल दधि व्यक्तियोंमें ही है, ऊंट, रोझ आदिमें नहीं । अतः ऊंट आदिकोंको अपेक्षा करके दहीके समान ज्ञानकी विषयता नहीं है। अतः शक्तिसे ही कार्य निर्वाह हो जावेगा, सदृश परिणाम मानना व्यर्थ है । यदि इस प्रकार तुम शंकाकार कहोगे तब तो हम जैन पूंछते हैं कि किन्हीं ही व्यक्तियोंका समान ज्ञान करानेकी वह कारणरूप शक्ति यदि एक है तब तो वह शक्ति जाति ही है । नित्य और एक होती
अनेकों समवाय सम्बन्धसे रहनेवाली जो वस्तु है वह जाति ही हो सकती है । जैसे कि अनेकों रहनेवाला एक सादृश्य वैशेषिकोंके यहां जातिरूप ही माना गया है। वैशेषिक लोग साह - श्यको सात पदार्थोंसे अतिरिक्त नहीं मानते हैं । मुख और चन्द्रमामें रहनेवाली आल्हादकत्व जातिको सादृश्य माना है । तैसे ही किन्ही विवक्षित व्यक्तियोंमें समान ज्ञान करानेवाली शक्ति भी एक जाति रूप ही पडेगी। जातिको माननेवाले नैयायिक या वैशेषिकने उसी बातको अपने ग्रन्थमें इस प्रकार कहा है कि अनेक व्यक्तियोंमें रहनेवाला अभेदरूपी एक सादृश्य और पदार्थोंकी एक आत्मारूप शक्तियां तथा जाति इन तीनोंको पर्यायवाची शद्बपना स्वीकार किया जाता है । यदि अब आप यों कहें कि उन व्यक्तियोंकी शक्ति भी भिन्न भिन्न हैं एक नित्य जातिरूप नहीं है । तब तो वही हमारे यहां सदृशपरिणाम माना गया है। आप उसको शक्ति कहते हैं, हम उसको सदृश परिणाम कहते हैं, इस प्रकार यहां केवल शसे भेद है । अर्थसे नहीं । आपने भी अनेक व्यक्तियोंमें रहने1 वाली नाना शक्तियों ( सामान्यों ) को भिन्न भिन्न स्वीकार कर लिया है । हमने भी सामान्यको वैसा ही व्यक्तियों स्वरूप माना है ।
कथं नियतव्यक्त्याश्रयाः केचिदेव सदृशपरिणामाः समानप्रत्ययविषया इति चेत्, शक्तयः कथं काश्विदेव नियतव्यक्त्याश्रयाः समानप्रत्ययविषयत्वहेतवः इति समः पर्यनुयोगः । शक्तयः स्वात्मभूता एव व्यक्तीनां स्वकारणात्तथोपजाता इति चेत् सदृशपरिणामास्तथैव संतु । यहां कोई कहता है कि नियमित विशेष व्यक्तिरूप आधारमें रहने वाले कोई ही आधेयभूत "सदृश परिणाम भला समान ज्ञानके विषय कैसे हो जाते हैं ? बताओ । भावार्थ — उष्ट्र, महिष, आदि भी विशेष व्यक्तियां हैं। अनेक ऊटोंमें ऊंटपनेसे समानज्ञान होता है और अनेक गौओं में गोपनेसे समानज्ञान होता है । किन्तु गौका ऊंटमें समान ज्ञान क्यों नहीं होता है ? भिन्न भिन्न