Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
तैसे ही समान परिणामसे आक्रान्त होकर ही उत्पन्न हो रही है । भावार्थ — विशेष और सामान्य दोनों धर्मोसे युक्त व्यक्ति अपने अपने कारणोंसे उत्पन्न हो रही है, सामान्य और विशेष दोनों एक मातासे जाये हुए भाई हैं, दोनों वस्तुभूत हैं ।
कथमेवं नित्या जातिरुत्पत्तिमव्यक्तिवदिति चेत्, द्रव्यार्थादेशादिति ब्रूमः, व्यक्तिरपि तथा नित्या स्यादिति चेत् न किञ्चिदनिष्टं, पर्यायार्थादेशादेव विशेषपर्यायस्य सामान्यपर्यायस्य वाऽनित्यत्वोपगमात् ।
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यहां कोई पूंछता है कि सदृश परिणामरूप जातिको आप अपने कारणोंसे उत्पन्न हुआ मानेंगे तो इस प्रकार माननेपर भला जाति नित्य कैसे रह सकेगी ? जैसे उत्पन्न होनेवाली व्यक्ति अनित्य है, वैसे ही जाति अनित्य हो जावेगी । फिर जातिके नित्यपनेकी प्रसिद्धिका जैनोंके यहां निर्वाह कैसे होगा ? ऐसा कहनेपर तो हम इस प्रकार स्पष्ट कहते हैं कि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे जाति नित्य है । भावार्थ - व्यक्तिके उत्पन्न होनेपर उससे अभिन्न जाति भी उत्पन्न हो जाती है । किन्तु द्रव्यदृष्टिसे जाति पदार्थ नित्य है । जातिनामक परिणामके परिणामी पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य आदि नित्यपदार्थ हैं । यदि कोई यों कहें कि तिस प्रकार द्रव्यदृष्टिसे तो घट, पट, गौ आदि व्यक्तियां भी नित्य हो जावेंगी । ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि व्यक्तियोंको भी नित्य हो जाने दो ! हम स्याद्वादियोंको कुछ भी अनिष्ट नहीं है । हमने पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे ही विशेषरूप पर्यायको और सामान्यरूप पर्यायको अनित्यपने करके स्वीकार किया है । द्रव्यदृष्टिसे तो सम्पूर्ण पदार्थ नित्य हैं ही। नोत्पत्तिमत्सामान्यमुत्पित्सुव्यक्तेः पूर्वे व्यक्त्यंतरे तत्प्रत्ययादिति चेत् । तत एव विशेषोप्युत्पत्तिमान्मा भूत् । पूर्वो विशेषः स्वप्रत्ययहेतुरन्य एवोत्पित्सुविशेषादिति चेत्, पूर्वव्यक्तिसामान्यमप्यन्यदस्तु |
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यहां कोई बादी कहता है कि सामान्य (जाति) नित्य है । यानी सामान्य उत्पत्तिवाला नहीं है । क्योंकि उत्पन्न होनेके लिये उत्सुक हो रही व्यक्तिके पहिले भी अन्य व्यक्तियोंमें उस सामान्यका ज्ञान हो रहा है । अर्थात् सामान्यकी यदि उत्पत्ति मानी जावेगी तो उत्पत्तिके पहिले सामान्यका ज्ञान नहीं होना चाहिये, किन्तु होता है । अतः सिद्ध है कि सामान्य नित्य है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो उस ही कारणसे विशेष भी उत्पत्तिवाला न हो सकेगा । क्योंकि विशेषसहित उत्पन्न हो रही व्यक्ति पूर्व समयोंमें अन्य व्यक्तियोंमें भी विशेषका ज्ञान हो रहा है । यदि यों कहोगे कि वह पहिला विशेष इस उत्पन्न हो रहे विशेषसे भिन्न होता हुआ ही अपने ज्ञानका हेतु है । यानी विशेष पदार्थ अनेक हैं, उत्पन्न हो रहे विशेषसे पहिले उत्पन्न हो चुका विशेष न्यारा है । गौका विशेष भिन्न है, और महिषका विशेष निराला है। आचार्य समझाते हैं कि ऐसा कहनेपर तो सामान्यको भी ऐसा ही मान लो ! उत्पन्न हो रहे सामान्यसे पहिली व्यक्तियोंका सामान्य न्यारा ही है । सामान्य भी अनेक हैं ।