Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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अतः सदृश परिणाम ( जाति ) को भिन्न भिन्न देशोंमें अंशरूपसे रहनेवाले अवयव सहितपनेका प्रसंग नहीं है । तथा आप वैशेषिकोंकी मानी गयी एक गोत्वजातिको सम्पूर्ण स्वरूपसे एक व्यक्तिमें ही वृत्ति मान लिया जावे तो अन्य व्यक्तियोंमें गोपना नहीं वर्त सकेगा। ऐसी दशामें एक गौ व्यक्ति तो गौ बनी रह सकेगी। अन्य गौ व्यक्तियां अगो हो जावेंगी। एकान्तवादियोंके यहां ये दोष अवश्य आते हैं। किन्तु कथञ्चित् भेदाभेद पक्षमें नहीं । प्रकृत गौमें गोपना है और अन्य गौमें उसका गोपना है । संग्रहनयकी अपेक्षासे अनेक सदृश परिणामोंको एक भी कह सकते हैं । जैसे कि अनेक अवान्तर सत्ताओंके समुदायको महासत्ता कह देते हैं।
न चास्य सर्वगतत्वं येन कर्कादिषु गोत्वादिप्रत्ययसांकर्य, नापि स्वव्यक्तिषु सर्वास्वेक एव येनोत्पित्सुव्यक्तौ पूर्वाधारस्य त्यागेनागमने तस्य निःसामान्यत्वं तदत्यागेनागतो सावयवत्वं प्रागेव तदेशेऽस्तित्वे स्वममत्ययहेतुत्वं प्रसज्यते, विसदृशपरिणामेनेव सशपरिणामेनाकान्ताया एवोत्पित्सुव्यक्तेः स्वकारणादुत्पत्तेः।।
___ नैयायिकोंके समान इस सदृश परिणाम ( जाति ) को हम सर्वव्यापक नहीं मानते हैं । जिससे कि धौला घोडा, रोझ, गेंडा आदि मध्यवर्तियोंमें गोपना, महिषपना आदिके ज्ञानोंका सांकर्य हो जावे । अर्थात् गोत्वको व्यापक माननेसे गौके सदृश शुक्ल घोडेमें भी गोत्वके विद्यमान रह जानेपर गोबुद्धि हो जावेगी। किन्तु स्याद्वादसिद्धान्तमें गोत्वको व्यापक नहीं माना है । एक, एक गोव्यक्तिमें न्यारा न्यारा सदृश गोत्व रहता है । शुक्ल घोडेमें वह गोत्व नहीं है । तथा अपनी सभी गोव्यक्तियोंमें वह गोत्व सामान्य एक ही रहता है यह भी नहीं समझना, जिससे ये तीन दोष आ सकें कि उत्पन्न होनेवाली एक गोव्यक्तिमें पहिले आधारको छोडकर उस गोत्वका आगमन माना जावेगा तो उस पहिली गो व्यक्तिको सामान्य रहितपनेका प्रसंग होगा। तथा यदि पहिले आधारको न छोडकर वह गोत्व नवीन उत्पन्न हुयी गौमें आ जावेगा, तब तो गोत्वको अवयव सहितपनेका प्रसंग होगा। क्योंकि कतिपय अंशोंसे गोत्व पहिले आधारमें स्थित रहा और उसके दूसरे कतिपय अवयव अन्य स्थलमें उत्पन्न हुए नवीन गौमें आगये हैं, वैशेषिकोंने द्रव्यमें ही क्रिया मानी है। जातिमें तो आना, जानरूप क्रिया नहीं बन सकती हैं। तथा नवीन गौके उत्पन्न होनेवाले उस प्रदेशमें पहिलेसे ही गोत्वका अस्तित्व माना जावेगा तो वह आधार विना ठहरा कहाँ ? तथा गौ उत्पत्तिके पूर्वकालोंमें भी अपने गोपनेके ज्ञान होनेकी कारणताका प्रसंग तीसरा होता है। न्यायदीपिकामें कहा है कि " न याति न च तत्रास्ति, न पश्चादस्ति नाशवत् । जहाति पूर्व ना धारमहो व्यसनसन्ततिः "। न तो कहीं जाती है । न वहां है। व्यक्ति नष्ट हो जानेके पीछे वहां रहती भी नहीं, तथा पहिले आधारको छोडती भी नहीं । फिर भी नित्य एक जातिको मानते रहना यह व्यसनियोंका कोरा आग्रह है । वास्तवमें बात यह है कि उत्साह सहित उत्पन्न हो जानेवाली व्यक्ति जो अपने अपने कारणोंसे उत्पन्न हो रही है, वह जैसे विशेष परिणामसे सनी हुयी उपज रही है,