Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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जाननेवाले ज्ञान होते हैं, तैसे ही ये समुदित गौ हैं । यह भी गौ है । यह भी गौ है । इस प्रकार न्यारी गौ व्यक्तियोंमें अन्वय अंशको विषय करता हुआ सामान्यका ज्ञान होता है । " गोवलीवर्द " न्यायके अनुसार गाय कहनेसे बैल और बैल कहनेसे गाय भी समझी जाती है । भिन्न भिन्न प्रकारकी गौओंको देखकर गाय हैं, गाय हैं, ऐसी अन्वय प्रतीति होती है। उसका विषय गोत्व जाति है। ऐसे ही अनेक प्रकारके घोडोंको देखकर यह घोडा है, यह भी घोडा है। ऐसे प्रत्ययसे घोडोंके सदृश परिणामको विषय करनेवाला अश्वत्व जातिका ज्ञान होता है । उस जातिको अवलम्ब करनेवाले जातिशब्द हैं।
भ्रान्तोऽयं सादृश्यप्रत्ययः इति चेत् विसदृशप्रत्ययः कथमभ्रान्तः ? सोऽपि भ्रांत एव स्खलक्षणप्रत्ययस्यैवाभ्रान्तत्वात् तस्य स्पष्टाभत्वादविसंवादकत्वाच्चेति चेत्, नाक्षजस्य सादृश्यादिप्रत्ययस्य स्पष्टाभत्वाविशेषादभ्रान्तत्वस्य निराकर्तुमशक्तेः। सादृश्यवैसदृश्यव्यतिरेकेण खलक्षणस्य जातुचिदप्रतिभासनात् । सदृशेतरपरिणामात्मकस्यैव सर्वदोपलम्भात् । सर्वतो व्यावृत्तानंशक्षणिकस्वलक्षणस्य प्रत्ययविषयतया निराकरिष्यमाणत्वात् ।
बौद्ध कहते हैं कि सदृशपनको विषय करनेवाला यह ज्ञान भ्रान्तिस्वरूप है । अर्थात् मिथ्याज्ञानसे जाना हुआ विषय वास्तविक नहीं कहा जा सकता है। अब आचार्य उत्तर देते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो बतलाओ ! तुम्हारा विलक्षणपनको विषय करनेवाला विशेषज्ञान अभ्रान्त (प्रमाण) कैसे है । इसपर आप बौद्ध यदि यों कहें कि विशेषपनेको जाननेवाला ज्ञान भी भ्रान्त ही है । विशेषपना असाधारणपना, अस्थिरपना, अणुपना ये भी तो एक प्रकारकी कल्पनायें ही हैं । सर्व कल्पनाओंसे रहित अकेले शुद्ध स्वलक्षणको विषय करनेवाला निर्विकल्पक प्रत्यक्षही अभ्रान्त है । क्योंकि वह विशदरूपसे अपने विषयका आभास करता है। तथा वह निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अविसंवादी भी है । ज्ञानसे जिसको जाना जावे, उसीको प्राप्त किया जावे, वह ज्ञान अविसंवादी कहा जाता है । विशेषपना और सामान्यपना ये दोनों धर्म कल्पित हैं । अतः प्रत्यक्ष प्रमाणके विषय नहीं हैं । ग्रन्थकार कह रहे हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि सदृशपना ( सामान्य ) विसहशपना ( विशेष ) स्थूलपना, स्थिरता आदिका भी इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षमें स्पष्टरूपसे प्रतिभास हो रहा है, कोई अन्तर नहीं है अर्थात् प्रमाणरूप प्रत्यक्षसे जैसे स्वलक्षण जाना जा रहा है तैसे ही सामान्य, विशेष भी जाने जा रहे हैं । सामान्य या विशेषको जाननेवाले ज्ञानके अभ्रान्तपनेका निराकरण नहीं किया जा सकता है । सामान्य और विशेषको छोडकर अकेले स्वलक्षणका कभी एकबार भी ज्ञान नहीं होता है । सदृशपने और विसदृशपने परिणामोंसे तदात्मक हुये पदार्थका ही सदा प्रतिभास हो रहा है । आप बौद्ध लोगोंने सभी धर्मोसे पृथग्भूत और अंशोंसे सर्वथा रहित तथा क्षणमें ही नष्ट होनेवाला ऐसा खलक्षण पदार्थ मान रखा है, वह तो किसी भी ज्ञानका विषय नहीं होता है। धर्म और अंशोंसे सहित तथा कुछ कालतक ठहरनेवाले पदार्थ ही ज्ञानके विषय होते हैं । श्री
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