Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
देखनेपर ही अन्यकी अपेक्षा बिना ज्ञान हो जाता है । मिश्री सबके लिए मीठी है । बच्चा, पशु, गूंगा, बहरा, अन्धा आदिके मुंह में प्राप्त हुयी मिश्री मीठी लगती है । चन्द्रमाको देखकर उसके रूपका ज्ञान पशु या उत्पन्न हुआ उसी दिनका बच्चा, अथवा मक्खीतकको हो जाता है । किन्तु पदार्थोंको देखते, सूंघते चाटते, ही विकल्प पनाओंसे रहित रूप, गन्ध, रसका निरपेक्ष होकर जीवोंको जैसे ज्ञान हो जाता है, वैसे जाति, गुण, मेरा, तेरा आदिपनेका ज्ञान नहीं होता है । भूभवन ( तलघर ) में उत्पन्न हुए बच्चेको रूप आदिकका ज्ञान हो जाता है । किन्तु गोत्व, अश्वत्व, आदि जातियोंका ज्ञान नहीं हो सकता है । आमको खाकर रसका ज्ञान हो जाता है । किन्तु यह आम आज टूटा 1 है I एक आनेका है । इसको देवदत्त लाया । चार दिन तक ठहर सकता है । इत्यादि ज्ञान प्रत्यक्षसे नहीं हो पाते हैं । अन्यथा सभी देखनेवालोंको होने चाहिये । आपके जैनसिद्धान्तमें भी इनको श्रुतज्ञानका ज्ञेय माना है । प्रत्यक्षज्ञान विचार करनेवाला नहीं है, वैसे ही हम लोगोंके निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें जाति द्रव्य आदिका उल्लेख नहीं है । हां ! प्रत्यक्ष ज्ञानके पीछे मिथ्यावासनाओंके अधीन होनेवाली कल्पना ( मिथ्याज्ञान ) में तो वे जाति आदिक प्रतिभासित हो जाती हैं। ऐसी दशामें यदि वे शद्वके विषय माने जावेंगे तब तो उस शद्वका विषय कल्पना ही हुआ । अतएव हम मानते हैं कि शदजन्य ज्ञान कल्पित पदार्थको ही विषय करता है । तभी तो हम ( बौद्ध ) आगमको प्रमाण नहीं मानते हैं । इस प्रकार कोई बौद्ध मतानुयायी कह रहे हैं ।
तेप्यनालोचितवचनाः । प्रतीतिसिद्धत्वाज्जात्यादीनां शद्वनिमित्तानां वक्तुरभिप्रायनिमित्तान्तरतोपपत्तेः । सदृशपरिणामो हि जातिः पदार्थानां प्रत्यक्षतः प्रतीयते विसदृशपरिणामाख्यविशेषवत् । पिण्डोयं गौरयं च गौरिति प्रत्ययात् खण्डोयं मुण्डोयमिति प्रत्ययवत् । अब आचार्य कहते हैं कि उनके ये कहे हुए वचन भी विना विचारे हुए हैं अथवा उन्होंने शद्वसिद्धान्त और शाद्वबोध प्रणालीका विचार नहीं किया है। क्योंकि जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया आदि ये सब प्रतीतियोंसे सिद्ध हो रहे हैं । नाम शद्वका निमित्त कारण वक्ताका अभिप्राय है । किन्तु शद्वके निमित्तसे अतिरिक्त निराले कारण जाति आदि हैं । जैनसिद्धान्तमें नैयायिकों के समान नित्य, व्यापक, एक और अनेकमें रहनेवाली ऐसी जाति नहीं मानी है, जिस कारणसे कि अनेक पदार्थोंका सदृश परिणाम रूप जाति प्रत्यक्ष प्रमाणसे जानी जा रही है । अनेक गौओंमें सींग, सास्ना, पशुत्व, ककुद् ( ढांट), पूंछके प्रान्तमें इकट्ठे बाल होना, आदिकी समानतारूप सदृश परिणाम देखा जा रहा है । जैसे कि विजातीय भैंस, घोडे, ऊंट आदिसे तथा सजातीय अन्य गौओंकी अपेक्षाकृत एक गौमें विभिन्न परिणाम नामका विशेष पदार्थ प्रमाणों द्वारा देखा जाता है । आप बौद्ध अन्योंकी अपेक्षासे रहनेवाले विशेष परिणामको वस्तुमें जैसे स्वीकार करते हैं, वैसे सादृश्यपरिणामरूप सामान्यको भी स्वीकार कीजिये । अर्थात् विशेष और सामान्य इन दोनोंसे तदात्मक हो रहा वस्तु ही प्रमाणका विषय है । जैसे यह खण्ड गौ व्यक्ति है । यह न्यारी मुण्ड गौ है । इस प्रकार विशेष अंशको
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