Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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चालोकवार्त
वस्त्रके थानमें एक सूत यदि मिलाया जावेगा, तो शीघ्र ही उस वस्त्रका अवयवोंके नाशक्रमसे सर्वथा नाश हो जावेगा। पीछे मिलाये हुए उस सूत (तन्तु) को अनेक अवयवोंमें सम्मिलित कर उन अवयवों में क्रिया उत्पन्न होगी, फिर विभाग, पूर्वसंयोगनाश और उत्तरदेशसंयोग होते हुए व्यणुक, त्र्यणुके क्रमसे बडा थान बन जावेगा । ऐसे ही सौ गज लम्बे थानमेंसे एक छोटासा सूत भी यदि निकाल लिया जावे तो भी सब थान नष्ट हो जावेगा । बडे छोटे अवयवोंका नाश होते होते केवल थानके परमाणु रह जायेंगे । निकाले हुए सूतसे अवशिष्ट रहे परमाणुओंमें क्रिया, विभाग आदि होकर व्यणुक, त्र्यणुकके क्रमसे एक सूत कम नवीन थान उत्पन्न होगा । किन्तु जैनसिद्धान्त ऐसा नहीं है । थानमें एक सूत मिलानेसे या निकालनेसे अशुद्धद्रव्यकी व्यंजनपर्याय दूसरी हो (बदल) जाती है । वहां अवयवक्रमसे पूर्व थानका नाश और नवीन थानका उत्पाद होना नहीं प्रतीत होता हैं । वैशेषिकों का मानना प्रत्यक्ष प्रमाणसे ही विरुद्ध पडता है । ऐसी उत्पाद और विनाशकी अयुक्त प्रक्रियाका ढोल पीटना निस्सार है । अतः थोथे कल्पित कणाद सिद्धान्तोंके हम परवश नहीं हैं । इस कारण अवयवीमें अवयवोंका समवाय भी हम इष्ट कर लेते हैं । विषाणी, ज्ञानी, शाखावान् आदि शब्द समवायी द्रव्यशद्व हैं । कुण्डली, छत्री, गृही, धनवान् आदिक शब्द यदि संयोगको हेतु मानकर प्रवृत्त हो रहे हैं तो विषाणी, सुखी, रूपी, कुकुद्वान् आदि शब्द समवायको कारण मानते हुए क्यों नहीं प्रवृत्त हो सकेंगे ? यानी अवश्य प्रवर्त रहे हैं ।
तथा सति न शद्वानां वाच्या जातिगुणक्रियाः । द्रव्यवत्समवायेन स्वसम्बन्धिषु वर्तनात् ॥ ११ ॥ यथा जात्यादयो द्रव्ये समवायबलात् स्थिताः । शद्वानां विषयस्तद्वत् द्रव्यं तत्रास्तु किञ्चन ॥ १२ ॥ संयोगबलतश्चैवं वर्तमानं तथेष्यताम् । द्रव्यमात्रे तु संज्ञानं नामेति स्फुटमीक्ष्यते ॥ १३ ॥ तेन पञ्चतयी वृत्तिः शङ्खानामुपवर्णिता ।
शास्त्रकारैर्न बाध्येत न्यायसामर्थ्यसंगता ॥ १४ ॥
और तैसा होते सन्ते द्रव्यके समान सम्बन्ध करके अश्वत्व, गोत्व आदि जातियां या शुक्ल, रक्त, मधुर आदि गुण अथवा चलना, तैरना, पढना आदि क्रियायें उन शब्दोंके वाच्य नहीं हैं । भले ही वे जाति आदिक अपने अपने सम्बन्धियोंमें समवाय सम्बन्धसे वर्तती हैं । किन्तु उन • अर्थोपर नामनिक्षेपका लक्ष्य नहीं है । जैसे जाति, गुण और कर्म ये समवाय सम्बन्धी साम