Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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दूसरा भेद समवायीद्रव्य शब्द है । जैसे कि सींगवाला बैल है, शाखावाला वृक्ष है, ज्ञानवान् आत्मा है । ये विषाणी, शाखी, ज्ञानी इत्यादि शब्द समवायी द्रव्य शद्व निर्णीत हो चुके हैं । नैयायिकों गुण और गुणीका तथा अवयव और अवयवीका समवाय सम्बन्ध इष्ट किया है । यह समवाय सम्बन्ध कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्धसे भिन्न नहीं ठहरता है । अतः कोई विरोध नहीं किया जाता है । गौका और सींगका अवयव अवयवीभाव होनेसे समवाय सम्बन्ध है । वैशेषिकोंके सिद्धान्तानुसार अवयवोंमें अवयवी समवाय सम्बन्धसे रहता है, अवयवीमें अवयव नहीं । किन्तु जैनसिद्धान्तके अनुसार अवयवों में भी समवाय सम्बन्धसे अवयवी रह जाता है और अवयवमें भी अवयव समवाय सम्बन्ध ( कथञ्चित् तादात्म्य ) से ठहरते हैं । नैयायिकोंने स्कन्ध की उत्पत्ति संघातसे ही मानी है । भेद ( विश्लेष ) से नहीं, परन्तु आहतोंने भेद, संघात और दोनोंसे स्कन्धकी उत्पत्ति मानी है परमाणुकी तो भेदसे ही उत्पत्ति होती है । भलें ही अनन्तानन्त परमाणु ऐसे हैं जो अभीतक स्कन्ध अवस्थामें प्राप्त नहीं हुए हैं, वे अनादिसे परमाणुरूप हैं । फिर भी जो स्कन्ध होकर पुनः परमाणुरूप हो गये हैं उनकी उत्पत्ति स्कन्धके विश्लेषणसे ही हुयी है । नैयायिकोंका मत है कि दो परमाणुओंसे यणुक बनता है, तीन द्यणुओंसे त्र्यणुक बनता है, चार त्र्यणुकोंसे एक चतुरणुक बनता है और पांच चतुरणुकोंसे एक पंचाणुक बनता है, तथा छह पंचाणुकोंसे एक षडणुक निष्पन्न होता है । ऐसे ही कपाल कपालिका और घटकी उत्पत्तितक यही व्यवस्था चली जाती है । नैयायिकोंका अनुभव है कि सृष्टिके आदिमें ईश्वर की इच्छासे व्यणुक बननेके लिये सभी परमाणुओंमें क्रिया हो जावेगी तो वे दो दो मिलकर सब व्यणुक बन जावेंगे, एक भी परमाणु शेष न बचेगा। इसी प्रकार सभी द्यणुकोंके तीन तीन मिलकर त्र्यणुक बन जावेंगे। तब एक भी परमाणु तथा एक भी ब्यणुक न बचेगा । ऐसे ही आगे महापिण्डपर्यन्त सृष्टि बन जावेगी। हां ! फिर कभी नाशका प्रकरण उपस्थित यदि होवे, तब कहीं भलें ही परमाणु और यणुक मिल सकें । यही दशा कच्चे घडेको अवामें पकाकर लाल होनेके पूर्वमें होती है, अग्नि संयोगसे क्रिया, क्रियासे विभाग, विभागसे पूर्वसंयोगनाश, उत्तरदेश संयोग आदि लम्बी प्रक्रिया होकर पुनः व्यणुक, त्र्यणुक, आदि क्रमसे नवीन रक्त घट बनता माना है । यों पीलुपाकवादी या पिठर पाकवादी नैयायिक वैशेषिकोंने मान रक्खा है । किन्तु जैनसिद्धान्तमें इस उक्त व्यवस्थाका खण्डन किया है । दो परमाणुओंसे व्यणुक बनता है । तीन अणु या एक द्यणुक और एक अणुसे त्र्यणुक बन जाता है । एवं चार अणु या दो व्यणुक अथवा एक त्र्यणुक और एक अणुसे भी चतुरणुक हो जाता है । ऐसे ही पञ्चाणुक आदिको समझ लेना । नाशमें भी चतुरणुकमेंसे एक परमाणुके निकल जानेपर या एक व्यणुकके बिछुड जानेपर अथवा एक त्र्यणुके निकल जानेपर चतुरणुकका नाश हो जाता है । चतुरणुकका नाश ( भेद ) होनेपर एक अणु और एक त्र्यणुक बन जाता है, या द्व्यणुकरूप भेद होनेपर दो बणुक बन जाते हैं । वैशेषिकों की मानी हुयी नाशप्रक्रिया अयुक्त है । वैशेषिक का यह सिद्धान्त है कि एक सौ गज लम्बे
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