Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
नाम निक्षेपवाले पदार्थ उसके वाच्य अर्थके अनुसार भूत, भविष्यमें परिणमन होने की शक्ति रखते हैं । मूर्ख अज्ञानी जीव कर्म फल चेतनाके समय अजीवके समान है । अजीव कर्म, शरीर भी आत्माके सम्बन्धसे चेतनवत् हो जाते हैं, घरघुल्ली या भौंरी शद करते करते मृत झींगुर या गिडारोंको अपना बच्चा बना लेती है । तीन चार दिनके लिये बना लिये गये सभापतिपनकी स्थापना पहिले और पीछे समयोंमें उन गुणोंकी निष्ठापक हो जाती है। वर्तमानकी भावरूप पर्यायोंसे आक्रान्त होरहे पदार्थका भूत भविष्यत् कालमें वैसा परिणमन करना प्रसिद्ध ही हो रहा है । अतः द्रव्य ही एक निक्षेप है । ऐसा कोई एक प्रतिवादी कह रहे हैं। चौथेका यह भाव है कि केवल पर्यायोंसे भिन्न नाम, स्थापना, द्रव्य इन सबकी घटना ( सिद्धि ) नहीं हो सकती है। नाम निक्षेपके वाच्य अर्थके अनुसार कुछ देर के लिये उसका वैसा परिणाम हो जाता है। आलसी शिष्यको मूर्ख कह देनेसे अल्पकालके लिये वह वक्ताकी ओरसे मूर्खत्व धर्मका आश्रय बन जाता है । तभी तो सुंदर, भव्य, और पवित्र नाम रखनेका उपदेश है । स्थापनामें तो तदनुसार परिणाम हो ही जाते हैं। इस बातको मूर्तिपूजक जन समझते हैं । द्रव्यमें शक्तिरूपसे वर्तमानमें भी भाव शक्तियां विद्यमान हैं । वस्तुका अर्थक्रियाकारीपन लक्षण भावोंमें ही समीचीन घटता है । सर्वत्र भावका प्रभाव है, अतः भाव ही एक न्यास है । इस प्रकार कोई अन्य वाद कह रहे हैं। उन चारों एकान्तवादियोंके निराकरण करने के लिये और सम्पूर्ण लोकोंमें प्रसिद्ध संकेतके अनुसार होते हुए व्यवहारोंमें अप्रकरण प्राप्तके दूर करने के लिये तथा प्रकरणगत पदार्थके व्युत्पादनके लिये संक्षेपसे निक्षेपतत्त्वकी प्रसिद्ध के अर्थ श्रीउमास्वामी महाराज इस सूत्र को कहते हैं ।
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ॥ ५ ॥
नामनिक्षेप, स्थापनानिक्षेप, द्रव्यनिक्षेप और भावनिक्षेपसे उन जीव आदिक पदार्थोंका - न्यास होता है । अर्थात् जगत्के अनन्त पदार्थोंकी ज्ञप्ति होनेमें प्रधान कारण ज्ञान है । इससे उतरता हुआ दूसरा प्रधान कारण शद्ब ही है । शद्वके द्वारा पदार्थोंमें प्रतिपाद्यपना नाम आदि चारनिक्षेपोंसे होता है । वाच्य पदार्थके अतिरिक्त बहुभाग अवाच्य पदार्थोंमें भी नाम आदिका . अवलम्ब लेकर न्यास किया जाता है । लोकप्रसिद्ध व्यवहारोंमें नाम आदिक निक्षेपोंकी विषयावधि अत्युपयोगी है । अतः जीव आदिक पदार्थोंको समझने और समझानेके लिये नाम, स्थापना, द्रव्य और भावोंसे उनका न्यास ( प्रतिपादित्व ) करना अनिवार्य है 1
न नाममात्रत्वेन स्थापनामात्रत्वेन द्रव्यमात्रत्वेन भावमात्रत्वेन वा संकरव्यतिरेकाभ्यां वा जीवादीनां निक्षेप इत्यर्थः । तत्र
केवल नामपनेसे ही या अकेले स्थापनापनेसे ही अथवा कोरे द्रव्यपनेसे ही एवं केवल भाव . तत्त्वसे ही जीव आदिकोंका न्यास नहीं होता है, किन्तु चारोंसे होता है । पूर्व में कह दिये गये