Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
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अजीव तत्त्व हैं, जीवात्मक नहीं हैं। अविद्याको भी अविद्या हो जानेसे विद्यापन आजाता है । असत्य यदि असत्य हो जावे तो वह सत्य हो जाता है । इसके आगे जीवको न मानकर अकेले अडतत्त्वको ही माननेवाले चार्वाकका खण्डन कर जड और चैतन्यके उपादान उपादेय भावका निरास किया है । कई वादी आस्रवतत्त्वको स्वीकार नहीं करते हैं । व्यापक आत्माके कोई क्रिया नहीं हो सकती है। इसका प्रत्याख्यान कर आत्मा और कालद्रव्यका अव्यापकपना सिद्ध किया है । आकाश, कालं, धर्मद्रव्य, और अधर्मद्रव्य इनको स्वतन्त्र तत्त्व मानना आवश्यक है । सर्वव्यापक एक कालद्रव्यसे परस्पर विरुद्ध अनेक क्रियायें न हो सकेंगी । अतः परमाणुके समान आकारवाले असंख्यात कालद्रव्योंको सिद्ध कर दिया है । जीवद्रव्य असंख्यात. प्रदेशोंमें रहता है। लोक और अलोकमें व्यापक नहीं है । अतः अव्यापक आत्मामें क्रिया हो जानेसे क्रियारूप आस्रवतत्त्वकी सिद्धि हो जाती है । बन्ध होना भी आत्माका विभावभाव है । वह जीव पुद्गल दोनोंमें रहता है। संसारी जीव निर्लेप नहीं हैं। किन्तु बहिरंग पुद्गलसे बन्धकर तन्मय हो रहा है । इसके आगे संवर और निर्जराको अकेले जीवका ही भाव इष्ट किया है । बन्धके समान मोक्ष भी जीव पुद्गल दोनोंका धर्म है, इस प्रकार धर्मी और धर्म रूप सातों तत्त्वोंका मुमुक्षुको श्रद्धान, ज्ञान और ध्यान करना चाहिये । इन सातों तत्त्वोंसे आठवां, नौवां अन्य कोई तत्त्व नहीं है । इनसे न्यून तत्त्व माननेमें भी मोक्षके लिये त्रुटि रहेगी। अभावरूप धर्म वस्तुके ही प्रतिजीवी अंश हैं । जीव और अजीवतत्त्वोंमें अनुजीवी, प्रतिजीवी, आपेक्षिक, आदि सभी अंशोंका तादात्म्य हो रहा है, अभाव तुच्छ पदार्थ कोई नहीं है । प्रकाशके समय अन्धेरेका अभाव प्रकाशरूप ही है और अन्धेरेके समय प्रकाशका अभाव भी अन्धेरारूप है । नैयायिक और वैशेषिकोंके तत्त्व सर्वज्ञोक्त नहीं हैं। मोक्षकी सिद्धिमें भी उनका विशेष उपयोग नहीं होता है। सोलह तत्त्वोंसे अनेक उपयोगी तत्त्व अवशेष रह गये हैं और उनमें दृष्टान्त, छल, निग्रहस्थान आदि निस्तत्त्व पदार्थ भर लिये गये हैं। जिनका कि भद्र मोक्षगामियोंको कभी उपयोग भी नहीं पडता है । वैशेषिकोंसे माने हुए छह पदार्थो या अभाव सहित सात पदार्थोका उपदेश भी अव्याप्ति अतिव्याप्ति, आदि दोषोंसे रीता नहीं है । किन्तु सर्वज्ञ अर्हन्तदेवकी आम्नायसे आये हुए सात तत्त्वोंका उपदेश निर्दोष है । रत्नत्रय सात पदार्थोसे भिन्न नहीं है, प्रवृत्ति और निवृत्तिमें उपयोगी रत्नत्रयजीव, आस्रव और संवरतत्त्वोंमें ही गतार्थ हो जाता है । जीवके सम्पूर्ण अंश जीवतत्त्वरूप हैं । अतः इन्हीं जीव आदि सात तत्त्वोंका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र सर्वज्ञोक्त होता हुआ हमको बहुत अच्छा लगा है । सात तत्त्वोंमें जीव, अजीव ये दो धर्मी हैं, आस्रव तत्त्व अशुद्ध द्रव्यका गुण है, शेष तत्त्व पर्यायें हैं। द्रव्य, गुण और पर्यायके अतिरिक्त जगत्में कोई अन्य पदार्थ नहीं है । सहभावी और क्रमभावी पर्यायोंका अखण्डपिण्ड ही द्रव्य है । जैसे कि नव देवताओंमें अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु ये पांच चेतनद्रव्य हैं । जिनबिम्ब और जिन चैत्यालय ये दो जडद्रव्य हैं, जिनधर्म आत्मद्रव्यका स्वाभाविक परिणाम है । तथा ज्ञानरूप जिनागम जीवद्रव्यका