Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
अन्तर्भाव हो जाता है। इस प्रकार अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव आदि दोषोंकी सम्भावना नहीं है
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न हि जीवो द्रव्यमेव पर्याय एव वा येन तत्पर्यायविशेषाः सम्यग्दर्शनादयः तद्ग्रहa न गृह्यन्ते, द्रव्यपर्यायात्मकस्य जीवत्वस्याभिप्रेतत्वात् । ततो नाद्रव्यत्वेऽपि रत्नत्रयस्य जीवेऽन्तर्भावाभावः । तथास्रवादित्वाभावोऽप्यसिद्धस्तस्य पुण्यास्रवत्वेन संवरत्वेन च वक्ष्यमाणत्वात् इति नास्रवादिष्वनन्तर्भावः ।
श्री स्वामी महाराजके कहे गये सूत्रमें जीवतत्त्वसे जीव द्रव्य ही या जीवकी पर्यायों ही ग्रहण नहीं है, जिससे कि उस जीवकी विशेष पर्यायरूप सम्यग्दर्शन आदिकोंका जीवके ग्रहणसे ग्रहण न होता । किन्तु द्रव्य और पर्यायोंसे तदात्मक होती हुयी जीव वस्तु जीवतत्त्वसे अभिप्रेत हो रही है । तिस कारण जीव द्रव्यसे कथञ्चित् भिन्न होते हुए भी रत्नत्रय भावका जीवद्रव्यमें अन्तभव न होना नहीं बनता है । भावार्थ - जीवके पर्यायस्वरूप रत्नत्रयका जीवतत्त्वमें अन्तर्भाव है । तथा आप द्वारा अभी कहा गया रत्नत्रयको आस्रव आदिपनेका अभाव भी असिद्ध है । क्योंकि उस रत्नत्रयको पुण्यास्त्रपने करके और संवरपने करके छट्ठे, सातवें और नौवें अध्यायमें आगे कहनेवाले हैं । इस प्रकार रत्नत्रयका आस्रव आदिकोंमें अन्तर्भाव न होवे, यह न समझना ।
येsपि च जीवाजीवयोरनन्ताः प्रभेदास्तेऽपि जीवस्य पुण्यागमस्य हेतवः पापागमस्य . वा पुण्यपापागमन निरोधिनो वा तद्बन्धनिर्जरणहेतवा वा मोक्षस्वभावा वा, गत्यन्तराभावात् । इति नास्रवादिभ्योऽन्यतां लभ्यन्ते येनाव्याप्तिरतिव्यात्यसम्भवौ तु दूरोत्सारितावेवेति निरवद्यं जीवादिसप्ततत्त्वप्रतिपादकं सूत्रं, ततस्तदाप्तोपज्ञमेव ।
तथा जो भी जीव और अजीवके अनन्तभेद प्रमेदरूप तत्त्व हैं, वे सभी जविके पुण्य आगमनके कारण या जीवके पापास्रवके कारण अथवा पुण्य पाप दोनोंके आगमन को रोकनेवाले, एवं उनकी बन्ध और निर्जराके कारण तथा मोक्षके स्वभावरूप परिणाम भी सब जीव अजविके ही भेद हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है । इस प्रकार रत्नत्रयस्वरूप भाव या जीवके अन्य कोई भी वास्तविक भाव इन आस्रव आदिक तत्त्वोंसे भिन्नताको प्राप्त नहीं होते हैं, जिससे कि रत्नत्रयके नहीं संग्रह होनेसे अव्याप्ति दोष होता, तथा " जीवाजीवास्रव ” आदि सूत्रमें अतिव्याप्ति और असम्भव दोष तो दूर ही से फैंक ( भगा ) दिये जाते हैं । इस प्रकार जीव आदिक सात तत्त्वों का प्रतिपादन करनेवाला यह प्रकृत सूत्र निर्दोष होकर सिद्ध हो गया । तिस कारण वह सर्वज्ञके आद्यज्ञान द्वारा ही आम्नायसे चला आया हुआ आचार्य महाराज श्रीउमास्वामीने कण्ठोक्त कहा है ।
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