Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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न हि रत्नत्रयं जीवादिष्वन्तर्भवत्यद्रव्यत्वादास्रवादित्वाभावच्च । तस्य सत्त्वान्तरत्वे कथं सप्तैव तत्वानि यतो जीवादिसूत्रेण सर्वतत्त्वासंग्रहात्, तदप्ययुक्तं न भवेदिति केचित् । - उक्त शंकाको व्याख्याके द्वारा कोई पुष्ट कर रहे हैं कि रत्नत्रयका जीव आदिक तत्त्वोंमें अन्तर्भाव नहीं हो पाता है । क्योंकि वे द्रव्य नहीं है और आस्रव आदि रूपपना भी उस रत्नत्रयमें नहीं है । अर्थात् आपने रत्नत्रयको आत्माके स्वाभाविक परिणाम माना है । अतः द्रव्यरूप जीव और पुद्गल, धर्म आदि अजीव द्रव्योंमें रत्नत्रयरूपी भाव गर्भित नहीं हो सकते हैं । तथा योग, गुप्ति, तपः, रुकना, निर्झरना, क्षय होना रूप न होनेसे आस्रव आदिरूप भी रत्नत्रय नहीं है । यदि उस स्नत्रयको आप जैन लोग सात तत्त्वोंसे निराला तत्त्व स्वीकार करोगे तो सात ही तत्त्व हैं यह सिद्धान्त कैसे ठहर सकेगा ? जिससे कि "जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्" इस सूत्र करके सम्पूर्ण तत्त्वोंका संग्रह न हो जानेसे वह आपका सूत्र कहना भी अयुक्त न होवे । भावार्थ--रत्नत्रयका संग्रह न होनेसे आप जैनोंका तत्त्व प्रतिपादक सूत्र भी अयुक्त है। सर्वज्ञोक्त नहीं है । इस प्रकार कोई पण्डित कह रहे हैं । अब आचार्य कहते हैं कि
तदसत्तस्य जीवादिखभावत्वेन निर्णयात् ।
तथा पुण्यास्रवत्वेन संवरत्वेन वा स्थितेः ॥ ६४ ॥ ___ जीवाजीवप्रभेदानामनन्तत्वेऽपि नान्यता।
प्रसिद्धयत्यास्रवादिभ्य इत्यव्याप्त्याद्यसम्भवः ॥ ६५ ॥ ___ सो शंकाकारका वह कहना प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि उस रत्नत्रयका जीव तत्त्व, संवर, निर्जरातत्त्व आदिके स्वभावपनेसे निर्णय कर दिया है। अर्थात् जीवद्रव्यके अनन्तगुण, अनन्तानन्त पर्याय, अविभागप्रतिच्छेद, आपेक्षिक धर्म इन सबका अखण्ड पिण्ड ही जीवतत्त्व है । संवर और निर्जरा भी रत्नत्रयसे भिन्न तत्त्व नहीं है । तथा तीर्थकर प्रकृति, आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग आदि पुण्यप्रकृतियोंका प्रवृत्ति-मार्गमें युक्त होरहे रत्नत्रयवाले जीवके ही आस्रव होता है। अतः पुण्यास्रवरूप तत्त्वपनेसे भी रत्नत्रयका निर्णय अथवा निवृत्तिमार्गमें लगे हुए जीवके संवर तत्त्वपने करके भी रत्नत्रयकी स्थिति हो ही रही है । अतः रत्नत्रय संवररूप है। निर्जरा और मोक्ष भी निश्चय नयसे रत्नत्रयरूप ही है । अतः जीव, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सब रत्नत्रयका ही न्यूनाधिक परिकर है । जीव अजीवके भेद प्रभेद अनन्त हैं तो भी वे आस्रव, बन्ध आदिकोंसे भिन्न होते हुए प्रसिद्ध नहीं हो रहे हैं । जीवोंके अनेक भावोंका आस्रव आदिकमें