Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्त
महल ) एक सुन्दर गृहमें ईंट, चूना, पत्थर, लोहा, काठ आदि अनेक अजीव पदार्थ हैं । सबको मिलाकर बनाये हुए संयुक्त द्रव्यको महल शद्वसे कहा जाता है । इसी प्रकार दुकान, यन्त्रालय, गोदाम, आदि भी अनेक अजीवोंके वाचक एक एक शब्द हैं । तथा कोई शब्द एक जीव और एक अजी का नाम है, जैसे कि प्रतीहार पद है । स्वामीसे मिलानेवाला द्वारपर खडा हुआ द्वारपालिया द्वार और व्यक्तिकी अपेक्षासे अथवा प्रतीहारपनके दण्ड, तलवार, बन्दूक, चपरास इनमें से किसी भी चिन्ह और पुरुषकी अपेक्षासे एक जीव और एक अजीव ये दो हैं । इसी प्रकार पत्रवाहक, न्यायकर्ता आदि शब्द भी एक जीव और एक अजीवके वाचक हैं ।
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किञ्चिदेकजीवाने काजीवनाम यथा काहार इति, किञ्चिदेकाजीवानेकजीवनाम यथा मन्दुरेति, किञ्चिदनेकजीवाजीवनाम यथा नगरमिति प्रतिविषयमवान्तरभेदाद्बहुधा भिद्यते संव्यवहाराय नाम लोके । तच्च निमित्तान्तरमनपेक्ष्य संज्ञाकरणं वक्तुरिच्छातः प्रवर्तते ।
कोई नाम तो एक जीव और अनेक अजीवोंका वाचक है, जैसे कि काहार यानी थोडा भोजन, यहां एक भोक्ता पुरुष है, खाद्य जड पदार्थ अनेक हैं । इसी प्रकार कठपुतलियोंसे खेल दिखलाने वाला बाजीगर या बहुरूपिया अथवा अनेक भूषण वस्त्रोंसे शोभित देवदत्त आदि शब्द भी हैं । एवंच कोई शब्द एक अजीव पदार्थ और अनेक जीव पदार्थके समुदायको कहते हैं, जैसे कि मन्दुरा यानी घुडसाल एक गृह है, उसमें अनेक घोडे रहते हैं । इसी प्रकार विद्यालय, सभागृह आदि नाम भी हैं । कोई कोई वाचक शब्द अनेक जीव और अनेक अजीव पदार्थोंके नाम हैं जैसे कि नगर । देखिये, एक नगरमें अनेक गृह, घट, पट, स्तम्भ, आदि अनेक जडरूप सामग्री है और अनेक मनुष्य, पशु भी नगर में विद्यमान हैं। ऐसे ही उद्यान, समुद्र, ग्राम आदि शब्द हैं । इस रीतिके अनुसार प्रत्येक वाच्य अर्थके मध्यवर्ती भेद प्रभेदोंसे बहुत प्रकार नाम शब्द समीचीन व्यवहार के लिये लोकमें न्यारा न्यारा हो रहा है। वह नाम निक्षेप विचारा प्रकृति, प्रत्यय और उनके अर्थ अथवा अन्य लौकिक निमित्तोंकी नहीं अपेक्षा करके मात्र वक्ताकी इच्छासे येथेच्छ किसीकी संज्ञा कर देनारूप प्रवर्त रहा है ।
किं पुनः नाम्नो निमित्तं किं वा निमित्तान्तरम् इत्याह
?
यहां किसी जिज्ञासुका प्रश्न है कि उस नामनिक्षेपका फिर निमित्त क्या है और उस नामका निमित्तान्तर यानी दूसरा निमित्त क्या हो सकता है। जिसकी कि नहीं अपेक्षा करके वक्ताकी इच्छा मात्रसे नामकी प्रवृत्ति हो जाती है । इस प्रकार दो प्रश्नोंके उत्तरमें आचार्य महाराज वार्तिकको कहते हैं । अनन्यचित्त होकर सुनिये ।