Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
चोपदेशः कर्तव्यस्तत्रानवधारणादेव प्रमेयादीनां गुणादीनां वानध्यवसायादिवत्संग्रहोपपत्तेरित्याकुलत्वादनाप्तमूल एवायं प्रमाणामुपदेशो द्रव्यागुपदेशो वा प्रकृत्यायुपदेशवत् ।
" प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसाधिगमः" इस न्यायदर्शनके सूत्रमें और "धर्मविशेषप्रसूताद्र्व्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधाभ्या तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम्" इस कणाद ऋषिसे कहे गये वैशेषिक दर्शनके सूत्रमें इतने ही तत्त्वोंका अवधारण ( एवकार ) नहीं कर दिया है। अतः नैयायिकोंके यहां अनध्यवसाय, विपर्यय, जिज्ञासा, प्रश्न आदिक तथा अविनाभाव, विशेष्यविशेषण भाव, प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव आदि पदार्थोका संग्रह किया जाचुका हो ही जाता है। ऐसे ही वैशेषिकोंके यहां भी अवच्छेदकत्व, निरूपकत्व, मोक्ष, बन्ध, आदिका भी संग्रह हो ही जाता है। यदि इस प्रकार सम्पूर्ण तत्त्वोंका संग्रह करोगे तब तो आप नैयायिकोंको प्रमाणतत्त्व है ऐसा ही उपदेश करना चाहिये । और वैशेषिकोंको द्रव्यतत्त्व है ऐसा उपदेश देना चाहिये । क्योंकि उन दोनों सूत्रोंमें एक ही तत्त्वका नियम करना रूप अवधारण नहीं करनेसे ही प्रमेय, संशय, प्रयोजन आदिका और वैशेषिकोंके गुण, कर्म, सामान्य आदिका संग्रह होना बन सकता है । जैसे कि अनध्यवसाय, विपर्यय आदिका आपने संग्रह कर लिया है । इस प्रकार प्रतीत होता है कि उपदेश देते समय आपके दर्शनकार व्याकुल (घबडाये हुए ) हैं। आकुलित होनेसे दिया गया यह प्रमाण आदिकका उपदेश
और द्रव्य आदिकका उपदेश दोनों ही आप्त पुरुषको मूल मानकर नहीं हुए हैं। जैसे कि कापिल ऋषिके द्वारा प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, पञ्च तन्मात्रा, ग्यारह इन्द्रियां, पांच भूत, और एक आत्मा इन पच्चीस ( २५ ) तत्त्वोंका दिया गया उपदेश सर्वज्ञ सत्यवक्ताको मूल कारण मानकर नहीं हुआ है । सूक्ष्म, विप्रकृष्ट, व्यवहित इन अतीन्द्रिय तत्त्वोंका उपज्ञ (आध-ज्ञान) सर्वज्ञको ही होता है। वे सम्पूर्ण पदार्थोका केवलज्ञानके द्वारा प्रत्यक्ष कर भव्यजीवोंको उपदेश देते हैं । अर्हन्तदेवके कहे हुए सात तत्त्वोंमें कोई वास्तविक पदार्थ छूटता नहीं है। अतः जीव और अजीव आदि सात तत्त्वोंका उपदेश ही सर्वज्ञमूलक है। शेष नहीं।
नन्वेवं सप्ततत्त्वार्थवचनेनाप्यसंग्रहात् । रत्नत्रयस्य तद्वाध्येप्ययुक्तत्वमितीतरे ॥ ६३ ॥
यहां किसीकी शंका है कि इस प्रकार तो जीव आदिक सात तत्त्वार्थोके कथन करनेसे भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन रत्नत्रयका संग्रह नहीं हो पाता है । इस कारण सर्वज्ञकी आम्नायसे चले आये हुए वे श्रीउमास्वामीके वचन भी अयुक्त हैं । यदि ये आप्त मूलक होते तो अत्यावश्यक रत्नत्रय तत्त्वका असंग्रह क्यों हो जाता ? इस प्रकार अन्य कोई विद्वान् सकटाक्ष कह रहे हैं।