Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
संशयस्य तदात्रैव नान्तर्भावः किमिष्यते।
प्रमाणाभावरूपत्वाविशेषात्तस्य सर्वथा ॥ ५८॥ ___ प्रमाण तत्त्वकी विधिक सामर्थ्यसे अप्रमाण ज्ञानोंकी निषेध्यकोटिमें स्वयं अर्थापत्तिसे ज्ञप्ति हो जाती है, यदि ऐसा कहोगे यानी प्रमाणतत्त्वके कहनेसे ही अप्रमाणोंका अन्तर्भाव करोगे, तब तो उस प्रमाणमें अनध्यवसाय, विपर्ययरूप अप्रमाण ज्ञानोंका अन्तर्भाव होना विरुद्ध पडता है । सम्यग्ज्ञानमें मिथ्याज्ञानका प्रवेश करना कैसे भी ठीक नहीं है । दूसरी बात यह है कि तब तो इस प्रकरणमें ही संशयका भी अन्तर्भाव क्यों नहीं माना जाता है । क्योंकि नैयायिकके मतानुसार अप्रमाणको प्रमाणमें प्रविष्ट किया जारहा है । सभी प्रकारोंसे प्रमाणोंका अभाव-रूपपना उस संशयको अन्तररहित समान है। भावार्थ-जैसे ही विपर्यय, अनध्यवसाय अप्रमाणरूप हैं वैसे ही संशय भी अप्रमाणरूप है । फिर क्या कारण है कि संशयका तत्त्वोंमें पृथक् निरूपण किया जारहा है और शेष मिथ्याज्ञानोंका नहीं।
प्रमाणवृत्तिहेतुत्वात् संशयश्चेत् पृथक्कृतः। तत एव विधीयेत जिज्ञासादिस्तथा न किम् ॥ ५९॥ .
प्रमाणोंकी प्रवृत्तिका कारण संशय है । अर्थात् पर्वत वह्निवाला है या नहीं । ऐसा संशय होनेपर अनुमान प्रमाणकी प्रवृत्ति होती है। किसी पदार्थका तरतमरूप करके प्रत्यक्ष करना, विशेष विशेषांशोंका निर्णय करना, अथवा ईहाज्ञान करना, इन ज्ञानोंके पूर्वमें संशय वर्तता है । आप जैनोंने भी सप्तभंगीके उत्थान होनेमें संशयको कारण माना है । अतः प्रमाणोंकी प्रवृत्तिका मुख्य कारण होनेसे संशयका पृथक् निरूपण किया है। शेष दो मिथ्याज्ञानोंका प्रमाण तत्त्वके अभावमें अन्तर्भाव हो जाता है । जैसे कि वैशेषिक मतके अनुसार तेजोद्रव्यके अभावमें अन्धकार का संग्रह हो जाता है । यदि नैयायिक ऐसा कहेंगे तो हम जैन कहते हैं कि तिस ही कारण यानी प्रमाणोंकी प्रवृत्तिका मुख्य हेतु होनेसे ही जिज्ञासा, प्रयोजन, शक्यप्राप्ति, प्रश्न . आदिका निरूपण भी तैसे ही संशयके सदृश क्यों नहीं किया जावे ? प्रमाणकी प्रवृत्तिमें संशयसे अधिक जिज्ञासाको कारणपना प्रसिद्ध है, इसको हम पूर्व प्रकरणोंमें समझा चुके हैं।
अभावस्याविनाभावसम्बन्धादेरसंग्रहात्।' प्रमाणादिपदार्थानामुपदेशो न दोषजित् ॥ ६॥
वैशेषिकोंके सात पदार्थोंमें अभाव पदार्थको स्वीकार किया है, नैयायिकोंका वैशेषिकोंके साथ मित्रताका सम्बन्ध है । किन्तु दूनेसे अधिक भी पदार्थोंको मान लेनेपर नैयायिकोंके सोलह पदार्थोंमें प्रागभाव आदि अभावोंका संग्रह नहीं हो पाया है। तथा अविनाभाव सम्बन्ध ( व्याप्ति), स्मरण,