Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
जाता है। सभी प्रकार भावोंसे रहित होता हुआ स्वतन्त्र अभाव पदार्थ देखा नहीं गया है । जैसे कि श्वेत और लाल रंगसे मिला हुआ पाटल रंग या हरो पीला रंग, खट्टा मीठा रस, सुगन्ध, शीत उष्ण स्पर्श ये स्वभाव सभी प्रकार भावोंसे रहित होते हुए नहीं देखे जाते हैं। अतः सात तत्त्वोंके विशेषण रूप अभाव पदार्थ उन सातोंमें ही गर्भित हो जाते हैं। आठवें, नौवें आदि अतिरिक्त तत्त्व माननेकी आवश्यकता नहीं है । अर्थात् विशेषण और विशेष्यका कथञ्चित् अभेद होता है। संयुक्त अवस्थामें दण्डीपनसे पुरुषपनका अभेद है । सर्व कार्य द्रव्यों या पर्यायोंके अनादिपनेका प्रसंग तथा अनन्तपनेका प्रसंग और एक द्रव्यको अन्य द्रव्यरूप हो जानेका प्रसंग, एवं एक द्रव्यजातिकी पर्यायोंका परस्पर संकर होनेका प्रसंग आवेगा, इन प्रसंगोंके निवारणार्थ तत्त्वोंमें प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव ये प्रतिजीवी गुण स्वरूप अभाव अंश माने जाते हैं । परचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तिपन सिद्ध करनेमें भी इनका उपयोग है । वस्तुके अंशभूत अभावोंकी भित्तिपर नास्तित्व धर्म कल्पित किया जाता है । अनुजीवी, प्रतिजीवी, पर्यायशक्तिरूप और आपेक्षिक ( वस्तुकी भित्तिपर कल्पित ) धर्म इन चार प्रकारके गुणोंका समुदायरूप (पिण्ड ) ही वस्तु है। प्रमेयकमलमार्तण्डमें अग्निके दाहकत्व, पाचकत्व, आदि पर्यायशक्तिरूप गुण और आपेक्षिक स्थूलपना, छोटापना आदि गुणोंको भी वस्तुभूत माना है । युक्तियोंसे ये बातें अन्य न्याय शास्त्रोंमें भी पुष्ट की गयी हैं ।
न ह्यभावः सर्वथा तुच्छः प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा प्रतीयते यतोस्य सर्वदा भावविशेपणतया दर्शनमप्रसिद्ध स्यात् तत्प्रसिध्धदभावस्य भावांशत्वं साधयति सितत्वादिवत् । ततो न कचिदवस्तुनि कस्यचिदसत्त्वप्रतीतिर्वस्तुन्येव तत्मतीतेस्तत्त्वान्तराभावस्य सप्ततत्त्वविप्रकर्षभावस्य सिद्धेरन्यमततत्वासंभावनैवेति सर्वसंग्रहः।।
वैशेषिकोंके द्वारा माना गया सभी प्रकारोंसे तुच्छ (निरुपाख्य ) स्वतन्त्र अभाव पदार्थ प्रत्यक्षप्रमाणसे नहीं जाना जाता है, और अनुमान प्रमाणसे भी नहीं ज्ञात होता है । जिससे कि इस अभावको सदा भावका विशेषण होकर दीखना अप्रसिद्ध या असिद्ध हो सके। भावार्थस्वतंत्र अभाव तत्त्व जाना नहीं जा रहा है । जो कुछ ज्ञात हो रहा है वह अभाव तो भावोंका विशेषण होकर ही दीख रहा है । अभावकों वह भाव विशेषणपना सिद्ध होता हुआ उसको भावका अंशपना सिद्ध करा देता है । जैसे कि शुक्ल पटमें शुक्लता पटद्रव्य ( अशुद्ध ) का विशेषण है। या गुड, खांड और मिश्रीमें मधुरता, मधुरतमता ये विशेषण गुड, खांड, मिश्रीके होते हुए उनके . ही अंश है, तिस कारण सिद्ध हुआ कि किसी भी अवस्तु [ तुच्छ ] में किसी प्राणीको असत्पनेकी प्रतीति नहीं होती है। यानी अञ्चविषाणके समान सर्वथा असत माने गये अभाव पदार्थमें असत. पनेकी प्रतीति नहीं होती है। किन्तु वस्तुमें ही असत्पनेकी प्रतीति होती है । भावितीर्थङ्कर श्री समन्तभद्राचार्य कहते हैं कि " प्रक्रियाके विपर्यय करनेसे वस्तु ही अवस्तु हो जाती है" " वस्त्वेवावस्तुतां याति प्रक्रियाया विपर्ययात् "। अतः तत्त्वान्तरोंके अभावको सात तत्त्वोंमें ही ।