Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
यथा हि सति सत्त्वेन वेदनं सिद्धमञ्जसा । तथा सदन्तरे सिद्धमसत्त्वेन प्रवेदनम् ॥ ५१ ॥ असद्रूपप्रतीतिर्हि नावस्तुविषया क्वचित् । भावांशविषयत्वात् स्यात् सितत्वादिप्रतीतिवत् ॥ ५२ ॥ भावांशी सत्सदाभावविशेषणतयेक्षणात् । सर्वथाभावनियादृष्टेः पाटलादिवत् ॥ ५३ ॥
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कोई वादी यहां प्रसंग देता है कि तत्त्व सात ही हैं, तत्त्वान्तर नहीं हैं। ऐसी दशा में अन्य तत्त्वोंका अभावरूप एक आठवें तत्वको माननेका प्रसंग आवेगा । इसपर आचार्य कहते हैं कि यह आपादन करना ठीक नहीं है। क्योंकि जैसे जहां घट है, वहां घटसे अतिरिक्त पट आदि पदार्थोंका अभाव भी है । वह पट आदिकोंका अभाव घटस्वरूप ही है, तैसे ही तत्त्वान्तरोंका अभाव भी सात तत्त्वके अस्तित्वस्वरूप ही है । उनसे अन्य यह तत्त्वांतराभावरूप आठवां तत्त्व नहीं प्रतीत होता है। इस कारण सात ही तत्त्व सिद्ध हुए । सत् पदार्थ के विद्यमान भावको तत्त्व कहते हैं । असत् पदार्थका असपना भी यही है । इससे न्यारा नहीं । अकेले घटके विद्यमान होनेपर अन्य पट आदिकोका असद्भाव घटसत्तारूप ही है, अतिरिक्त नहीं। दोनों प्रकारके व्यवहारकी प्रवृत्ति वस्तु में ही कहीं जावेगी। अवस्तुमें या तुच्छ अभावमें नहीं । जैसे ही इसी सत् पदार्थ में सत्पने करके ज्ञान होना निर्दोषरूपसे सिद्ध है तैसे ही अन्य दूसरे सत् में निर्दोषरूपसे असत्पने करके अच्छा ज्ञान होना भी सिद्ध है, यानी प्रकृत घट सत्पनेकी अपेक्षासे सत् है । वही अन्य सत्पदार्थों की अपेक्षासे असतरूप है। वैशेषिक के समान हमारे यहां अभाव पदार्थ स्वतन्त्रतत्त्व नहीं है । किन्तु भावोंका विशेषण है ! तभी तो कहीं भी असत् आकारवाली प्रतीतिका विषय अवस्तु नहीं माना गया है । किन्तु अभावको जाननेवाली प्रतीति भी भावके अंशोंको ही विषय करती ( जानती ) है । जैसे कि शुक्लपना, पण्डितपना, धनाढ्यपना आदिको जाननेवाली प्रतीतियां हैं । अर्थात् शुक्ल वस्तु में काले, नीले आदि वर्णोंका अभाव है, वह शुक्लस्वरूप ही है । अन्य अभावरूप कोई न्यारा तुच्छ पदार्थ नहीं । तथा मूर्खपना, मत्तपना, आदिका अभाव पण्डितपनारूप ही है । अन्य स्वतन्त्र अभावतत्त्व नहीं । और दरिद्रपने, रिक्तताका अभाव धनाढ्यपना रूप ही है । स्वतन्त्रतत्त्व नहीं । अथवा शुक्लता, मधुरता, सुगन्ध आदि धर्म जैसे भावविशेषण ही देखे जा रहे हैं, तैसे ही असत् ( अभाव ) भी भावपदार्थका अंश हैं। असत् भी सदा सत् (भाव) का विशेषण होकर देखा ( जानां ) जा रहा है । जैसे भूतमें घटाभाव, पुद्गलमें ज्ञानका अभाव, आत्मामें रूपका अभाव। यहां भाव पदार्थ विशेष्य हैं और अभाव पदार्थ विशेषण हैं। विशेष्यको अपने अनुसार रंगता हुआ विशेषण विशेष्यके साथ तदात्मक हो