Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
और निर्जरा हैं, वे आत्माके ही परिणाम हैं । पुद्गलके नहीं। अथवा संवर तो आत्माका ही धर्म है । किन्तु निर्जरा तत्त्व तो आत्मा. और कर्म दोनोंमें रहनेवाला धर्म है । आत्मासे बिछुडे हुए कर्मोमें भी निर्जरा रहती है, द्रव्यनिर्जरा तो विभागरूप ही है । तथा मोक्षतत्त्व जीवका धर्म है और बन्धके समान पौद्गलिक कर्ममें रहनेवाला भी धर्म माना गया है। भावार्थ-जैसे बेन्ध, जीव और पुद्गल. दोनोंमें रहता है । तैसे ही मोक्ष भी जीव और पुद्गल दोनोंमें रहनेवाला भाव है । इस प्रकार धर्मी
और धर्मस्वरूप तत्त्वोंके सात भेद सूत्रमें कहे गये हैं। यहां मोक्षमार्गके प्रकरणमें मोक्षके चाहनेवाले जीवको उन सातोंका नियमसे श्रद्धान करना चाहिये और सातों तत्त्वोंका समीचीन ज्ञान करना चाहिये। तथा उन सात ही तत्त्वोंका भले प्रकार ध्यान ( चारित्र ) करना चाहिये।
__ जीवाजीवौ हि धर्मिणौ तद्धर्मास्त्वात्रवादय इति धर्मिधर्मात्मकं तत्त्वं सप्तविधमुक्तं मुमुक्षोरवश्यं श्रद्धेयत्वाद्विज्ञेयत्वादाध्येयत्वाच्च सम्यग्दर्शनज्ञानध्यानविषयत्वानिर्विषयसम्यग्दर्शनाद्यनुपपत्तेस्तद्विषयान्तरस्यासम्भवात् । सम्भवे तत्रैवान्तर्भावात् ।
जिसमें अनेक गुण, पर्याय, आपेक्षिकधर्म, अविभागप्रतिच्छेद ये स्वभाव रहते हैं वह धर्मी है । जो धर्मीमें वर्तता है वह धर्म है । इन सात तत्त्वोंमें जीव और अजीव दो तत्त्व तो नियम से धर्मी हैं । तथा आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये पांच तो उन जीव तथा अर्जावोंके धर्म हैं। इस प्रकार दो धर्मी स्वरूप और पांच धर्मस्वरूप ये सात प्रकारके तत्त्व उमास्वामी महाराजने कहे हैं । मोक्ष चाहनेवाले भव्यजीवको इन्हीं सात तत्त्वोंका अवश्य श्रद्धान करना चाहिये । और समीचीन ज्ञान करना चाहिये । तथा आत्मनिष्ठारूप चारित्रके द्वारा इन्हींका ध्यान करना चाहिये । क्योंकि येही श्रद्धान, ज्ञान और ध्यान करने योग्य हैं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, और ध्यानके विषय ये सात तत्त्व हैं । विषयोंके बिना सम्यग्दर्शन आदिक बन नहीं सकते हैं। जैसे कि कोई खा रहा है, वहां खाने योग्य पदार्थ अवश्य है । पका रहा है, वहां पकने योग्य पदार्थ अवश्य है। तैसे ही श्रद्धान करना, जानना
और ध्यान करनारूप क्रियाओं के विषयभूत पदार्थ जीव आदिक सात हैं। उन सातोंसे अतिरिक्त अन्य विषयोंका असम्भवपना है । यदि पुण्य, पाप गुप्ति, आदिको निराला मानने की सम्भावना भी की जावे सो उनका भी उन सातोंमें ही अन्तर्भाव हो जावेगा। सातसे भिन्न तत्त्वोंके माननेकी आवश्यकता नहीं पडेगी।
न च तत्त्वान्तराभावस्तत्त्वमष्टममासजेत् । सप्ततत्त्वास्तितारूपो ह्येषोऽन्यस्याप्रतीतितः॥४९॥
तत्त्वं सतश्च सद्भावोऽसतोऽसद्भाव इत्यपि । __वस्तुन्येव द्विधा वृत्तिर्व्यवहारस्य वक्ष्यते ॥ ५० ॥.