Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
जावे । कोई झंझटोंसे डरनेवाला अतिवृद्ध पुरुष यहां कहता है कि नका अर्थ आपको पर्युदास करना ही पडता है। इससे यही अच्छा है कि हेतु दलमें कालद्रव्यसे भिन्नपना होते हुए असर्वगत द्रव्यपना इस प्रकार व्यभिचार दोषसे रहित समीचीन हेतुका स्पष्टरूपसे निरूपण कर दिया जावे तो अच्छा है । ऐसे कहनेपर तो गम्भीर आचार्य महाराज कहते हैं कि इसमें हमको कोई अनिष्ट नहीं है। जो जो कालसे भिन्न अव्यापक द्रव्य हैं वे वे क्रियावान् हैं, इस प्रकार हेतुका अर्थ हमको अभीष्ट है। सम्भव है कभी पुद्गलको भी पक्षकोटिमें डाल दिया जावे तो पुद्गलपरमाणुमें भी हेतु रह गया। अतः भागासिद्ध होनेकी सम्भावना नहीं रही, चलो ! अच्छी बात हुयी । दूसरे नैयायिक और वैशेषिकोंके यहां तो कालको सर्व व्यापकद्रव्य इष्ट किया है, इस कारण तिस कालसे व्यभिचार देनेकी उनके द्वारा प्रेरणा करना असम्भव है। तभी तो इस सूत्रकी पैंतालीसवीं (४५) वार्तिकमें तैसा कालभिन्नत्व विशेषण हमने नहीं दिया है । केवल असर्वगत द्रव्यपनेसे आत्मामें क्रियाको सिद्ध कर लिया है । आत्मामें देशसे देशान्तरको जानारूप क्रिया विद्यमान है । रही पुद्गलपरमाणुमें क्रिया सिद्ध करनेकी बात, सो दूसरे हेतुओंसे क्रिया सिद्ध कर दी जावेगी। एक समयमें एक परमाणु मन्द गतिसे एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशतक ही जाता है और तीव्र गतिसे चौदह राजू चला जाता है। -
एवं च निरवद्यात्साधनादात्मनः क्रियावत्त्वसिद्धः कायादिक्रियारूपोऽस्यास्रवः प्रसिध्द्यत्येव, कायालंबनाया जीवप्रदेशपरिस्पन्दनक्रियायाः कायास्रवत्वाद्वागालम्बनाया वागास्रवत्वान्मनोवर्गणालम्बनाया मानसास्रवत्वात् । ___तथा इस प्रकार निर्दोष हेतुसे आत्माके क्रियावान्पना सिद्ध होजानेके कारण इस आत्माका शरीर आदि यानी शरीर, वचन और मनकी क्रियारूप आस्रवतत्त्व प्रमाणों द्वारा सिद्ध हो ही जाता है । शरीर या स्थूल शरीरके उपयोगी आहारवर्गणा अथवा सूक्ष्म शरीरके उपयोगी कार्माणवर्गणाको अवलम्ब लेकर उत्पन्न हुयी आत्माके प्रदेशोंकी कम्परूप क्रियाको कायास्रव कहते हैं । वचन या भाषावर्गणाको अवलम्ब लेकर उत्पन्न हुयी आत्माके प्रदेशकम्परूप क्रियाको वचनास्रव कहते हैं और संचित या आनेवाली मनो वर्गणाका अवलम्ब लेकर उत्पन्न हुए आत्मप्रदेशकम्पको मानस आस्रव कहते हैं । इस प्रकार स्थूलरूपसे तीन योग और व्याख्यानसे श्रेणीके असंख्यातमें भागरूप असंख्यात योग आस्रवतत्त्व हैं । इस आस्रवतत्वका श्रद्धान करना मोक्षकेलिये अति उपयोगी है।
बन्धः पुंधर्मतां धत्ते द्विष्ठत्वान्न प्रधानके । केवलेऽसम्भवात्तस्य धर्मोऽसौ नावधायत ॥ ४६ ॥
अब बन्ध तत्त्वका विचार करते हैं कि बन्ध पदार्थ पुरुषके धर्मपनेको धारण करता है, यानी बन्ध आत्माका धर्म ( भाव ) है (प्रतिज्ञा )। क्योंकि वह बांधनेवाले [ आत्मा ] और बन्धने योग्य