Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तरवार्थचिन्तामणिः
१५३
कालाणुमें हेतु ही नहीं रहता है, हेतुके न रहनेपर साध्य यदि न रहा तो व्यभिचार दोष नहीं है । असर्वगतद्रव्यपने में व्यापक द्रव्यपनेका अभाव किया गया है । यहां नका अर्थ प्रसज्य नहीं, किन्तु उससे भिन्न उसके सदृश पदार्थको ग्रहण करनेवाला पर्युदास है। तभी तो सर्व व्यापक द्रव्य होनेके निषेध करनेपर उसके सदृश अन्य एक समय नाना देशों ( सर्वत्र नहीं किन्तु बहुतसे ) में सम्बन्ध करने वाले पदार्थमें ज्ञान होता है। किन्तु फिर सर्वथा अंशोंसे रहित माने गये कालाणुओंमें ज्ञान नहीं होता है । भावार्थ-यहां परिमाणके निषेध करनेपर मध्यम परिमाण लिया जाता है । अणु परिमाण नहीं । यह परिभाषारूपसे वचन समुचित है कि नञ्के समान पर्युदास पक्षमें उससे भिन्न उसके सदृश अधिकरणमें नियमसे तिसी प्रकार भावरूप अर्थका ज्ञान होता है । यहां भावका सर्वथा निषेध करनेवाले प्रसज्य प्रतिषेधका आश्रय नहीं लिया है । वैशेषिकोंसे माने गये तुच्छ अभावको हम स्वीकार नहीं करते हैं । अतः मध्यम परिमाणसे अवच्छिन्न द्रव्यपना हेतु कालाणुमें नहीं है। अतः साध्यके नहीं रहनेसे व्यभिचार दोष नहीं आता है । . असंख्येयभागादिषु जीवानामिति जीवावगाहस्य नानालोकाकाशप्रदेशवर्तितया वक्ष्यमाणत्वात् । तथा च कतिपयप्रदेशव्यापिद्रव्यत्वादिति हेत्वर्थः प्रतिष्ठितः ।
___ इसी तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थके पांचवें अध्यायमें कहेंगे कि जीव द्रव्योंमेंसे एक जीवकी स्थिति लोकके असंख्यातवें भाग, या संख्यातवें भाग, तीनसौ तेतालीस (३४३ ) भागोंमेंसे छह, आठ आदि भागोंमें है । केवली समुद्घातकी लोकपूरण अवस्थामें पूर्ण लोकाकाश भी घेर लिया जाता है । फिर भी अलोकाकाशमें जीवके प्रदेश नहीं है। सबसे छोटा सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव घनांगुलके असंख्यातवें भागरूप असंख्यात प्रदेशोंको अवश्य घेर लेता है । इससे कम एक, सौ, पांच सौ, या संख्यात प्रदेशों, में तो कोई जीव नहीं रहता है । इनसे अधिक प्रदेशोंमें ही ठहर सकेगा और लोकसे अधिक अलोकमें कोई जा न सकेगा । अतः जीव सर्वव्यापक द्रव्य नहीं है । लोकाकाशके अनेक प्रकार असंख्यात प्रदेशोंमें ही जीवका अवगाह होना वर्त रहा है, ऐसा आगे कहा जावेगा। तिस कारण हमारे असर्वगतद्रव्यपने हेतुका कितने ही प्रदेशोंमें व्याप्त होनेवाला द्रव्यपना यह अर्थ हमने प्रतिष्ठित किया है । व्याख्यान करनेसे पदार्थकी विशेष प्रतिपत्ति हो जाती है । असर्वगत द्रव्यपनेसे सर्व अनन्तप्रदेशोंमें ठहरने और एक ही प्रदेशमें ठहरनेका निवारण कर दिया जाता है ।
न च कालाणुः स्याद्वादिनां कतिपयप्रदेशव्यापिद्रव्यं यतस्तेन हेतोर्व्यभिचारः। कालादन्यत्वे सत्यसर्वगतद्रव्यत्वादिति स्पष्टं साधनमव्यभिचारि वाच्यमिति चेन्न, किंचिदनिष्टमीगर्थस्य हेतोरिष्टत्वात् । परेषां तु कालस्य सर्वगतद्रव्यत्वेनाभिप्रेतत्वात्तेन व्यभिचारचोदनस्यासम्भवाद्वार्तिके तथा विशेषणाभावः।
स्याद्वादियोंके यहां एक ही प्रदेशमें रहनेवाली कालाणुको कुछ संख्यात या असंख्यात प्रदेशोंमें व्यापनेवाला द्रव्य नहीं माना है, जिससे कि उस कालाणुसे असर्वगतद्रव्यपने हेतुका व्यभिचार हो
20