Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
अग्नि संयोगजन्यद्रवत्व, धातुपने, आदिसे भी सोने और रूपे में सजातीयता है । अतः इनमें उपादान उपादेय भाव बन जाता है । यदि चार्वाक यों कहें कि तब तो पृथ्वी आदि अचेतन और चैतन्य, सुख, ज्ञान आदि चेतन पदार्थोंका भी सत्यता, पदार्थपना, वस्तुपना, आदि धर्मो करके सजातीयपना होने से वह परिणामपरिणामी भाव हो जाओ। यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उपाशन उपादेयभावकी व्यवस्था करनेमें यदि सत्त्व या वस्तुत्व धर्मो करके सजातीयता पकडी जावेगी तब तो आपके माने गये जल और अग्नि तत्त्वसे व्यभिचार होगा । अर्थात् जल और अग्नि दोनों वस्तु और सत् मानी गयी हैं । उनमें भी उपादान उपादेयभाव होजावेगा । तब तो चार तत्त्वों के स्थान में तीनही रह जायेंगे । वे तीन भी सत् हैं । वस्तु हैं, पदार्थ हैं, अतः उनमें भी विवर्त्तविवर्ति भाव हो जावेगा । एवं एक ही तत्त्व आपके हाथ लगेगा । इससे सिद्ध है कि जल और अग्निमें सत्त्व आदिकपने से सजातीयपना होते हुए भी आप उपादान उपादेय भाव नहीं मानते हैं । तैसे ही जड और चेतन में भी मति मानो ।
तयोरद्रव्यान्तरत्वात्तद्भाव इति चेन्न, असिद्धत्वात् । तयोरपि द्रव्यान्तरत्वस्य निर्णयात्तद्भावायोगात् ।
तिन अचेतन और चेतनको भिन्नद्रव्यपना या भिन्न तत्त्वपना नहीं है, इस कारण उनका वह परिणाम परिणामीभाव बन जाता है, इस प्रकार चार्वाकोंका कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि जड और चेतनमें द्रव्यान्तर रहितपना यानी एकतत्त्वपना असिद्ध है । उन चेतन और अचेतन दोनोंको भी भिन्न द्रव्यपनेका निर्णय हो रहा है, अतः उस विवर्त्तविवर्त्तीभाव के होनेका अयोग है ।
निर्णेष्यते हि लक्षणभेदाच्चेतनाचेतनयोर्द्रव्यान्तरत्वमिति न तयोर्विवर्तविवर्तिभावो येन चेतनात्मकं प्रत्यक्षं जीवद्रव्यस्वरूपं न स्यात् । प्रायेण दत्तोत्तरं च चेतनस्याद्रव्यान्तरत्ववचनमिति न जीवमन्तरेण स्वार्थजीव साधनमुपपद्यते ।
लक्षण के भेदसे चेतन और अचेतन में भिन्न द्रव्य ( तत्त्व ) पना है, इस बातका आगे के अध्यायोंमें अवश्य निर्णय कर देवेंगे । चेतनका लक्षण उपयोग है और अचेतनके रूप, गतिहेतुत्व, आदि लक्षण हैं । इस प्रकार एकद्रव्यप्रत्यासत्ति न होने के कारण उन जड़ और चेतनमें परिणाम परिणामी भाव नहीं बनता है, जिससे कि चेतनस्वरूप ( चेतना के साथ है तादात्म्य जिसका ) प्रत्यक्षप्रमाण जीवतत्त्व स्वरूप न होवे । भावार्थ- — प्रत्यक्षका उपादानकारण चेतन जीव ही है और हम कई स्थलोंपर प्रायः करके इस कटाक्षका उत्तर दे चुके हैं कि पृथ्वी आदिकोंसे चेतन तत्त्व द्रव्यान्तर नहीं कहा गया है । यों चार्वाकोंके पूर्व पक्ष करनेपर पृथ्वी आदिकोंसे जीव द्रव्यका तत्त्वान्तरपना उत्तरमें कहा जा चुका है। अतः यहां चार्वाकसिद्धान्तका खण्डन करनेके लिये पुनः आयोजन नहीं किया जाता है । इस पद्धति से सिद्ध हो जाता है कि जीव तत्त्वको माने बिना अपने लिये अजीव पदार्थकी सिद्धि करना नहीं बन सकता है । भावार्थ - प्रत्यक्ष प्रमाणसे अजीव पदार्थोंकी 1
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