Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकंवार्तिके
सिद्धि करना आत्माके लिये ही उपयोगी हो सकता है । जड़की सिद्धि जडके लिये उपयोगी नहीं है
और हो भी नहीं सकती है । जड पदार्थ अपने आप अपनी सिद्धिको नहीं कर सकता है, जैसे कि शब्द स्वयं अपना अर्थ-व्याख्यान नहीं कर सकते हैं।
एतेन स्मृतिप्रत्यभिज्ञानानुमानादिकं गौणपृथिव्याद्यजीवसाधनं स्वार्थ जीवमन्तरेणानुपपन्नमिति निवेदितं, तस्यापि चेतनद्रव्यस्वरूपत्वाविशेषात् प्रधानादिरूपतया तस्य प्रतिविहितत्वात् ।
चार्वाकोंने पहिले अपना यह मन्तव्य प्रकट किया था कि हमसे माना गया प्रत्यक्ष प्रमाण भी अजीव तत्त्वोंका ही विवर्त है । उसीके समान स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, अनुमान, प्रतिभा, तर्क, आदि भी गौणरूपसे पृथ्वी आदि अजीव तत्त्वके विवर्त सिद्ध हैं । घट, पट, पर्वत, आदि मुख्य पृथिवी-तत्त्व हैं। तथा पृथिवी तत्त्वके कभी कभी होनेवाले स्मृति आदि गौणरूपसे पृथिवीके परिणाम हैं । इस प्रकार स्मृति आदिकोंको अजीवरूप सिद्ध करते हुए स्वार्थ मानते हैं और पृथिवी, स्मृति आदि गौण अजीव तत्त्वोंके लिये मुख्य पृथ्वी आदि तत्त्वोंकी सिद्धि कर दी जावेगी । अतः अजीवके लिये अजीवका सिद्ध करना बन जाता है । इस प्रकार चार्वाकोंका कथन भी इस उक्त कथन करके नहीं सिद्ध होने पाता है। इसको हम निवेदन कर ही चुके हैं । अचेतनका परिणाम स्मृति आदि चेतनरूप नहीं हो सकता है । परमार्थरूपसे आत्मास्वरूप जीवको माने विना अजीवकी सिद्धि अपने लिये अपने आप नहीं हो सकती है। क्योंकि उन स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, अनुमान आदिकोंको भी चेतनद्रव्यस्वरूपपना विशेषताओंसे रहित ( सामान्य ) है, वे चेतन जीवके स्वात्मभूत स्वभाव हैं । कापिलोंके मतानुसार उन स्मृति आदिकोंको प्रधानरूपपने करके और बौद्धोंके मतानुसार अविद्यारूपपने करके भी उन स्मृति आदिकोंका हम खण्डन कर चुके हैं। भावार्थ-स्मृति आदि चेतनधर्म तो जड माने गये प्रधान आदिके धर्म नहीं हैं, किन्तु आत्माके हैं। अतः उनके लिये भी अजीवतत्त्व सिद्धि करना जीवको माने विना न हुयी । स्मृति आदिको जडस्वरूप माना जावेगा तो जड अपनी सिद्धि स्वयं नहीं कर सकता है अन्यथा विवाद ही न होवे । गौण पृथिवी स्वयं चिल्लाकर अपना साधन अपने आप नहीं कर रही है । अतः जीवतत्त्वका मानना अनिवार्य है।
न कायादिक्रियारूपो जीवस्यास्त्यात्रवः सदा। निःक्रियत्वाद्यथा व्योम्न इत्यसत्तदसिद्धितः ॥४४॥ क्रियावान् पुरुषोऽसर्वगतद्रव्यत्वतो यथा।
पृथिव्यादिः स्वसंवेद्यं साधनं सिद्धमेव नः॥४५॥
जीव और अजीव तत्त्वका विचार कर अब आस्रव तत्त्वको सिद्ध करनेके लिये विचार चलाते हैं। तहां प्रथम ही आस्रव तत्त्वको नहीं माननेवाले नैयायिक या वैशेषिकका पूर्वपक्ष हैं कि जीवके