Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
होना माना जावेगा, यों तिस प्रकारसे तो गुरु शिष्य आदिकोंके भेदकी ही सिद्धि हो जावेगी | अद्वैत तत्व हाथसे निकल जावेगा ।
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यदि पुनरविद्याप्रभेदात्तथा विभागस्तदा साप्यविद्या प्रतिपादकगता कथं प्रतिपाद्यादिगता न स्यात् ? गता वा प्रतिपादकगता तदभेदेपीति सार्य नश्वेतः ।
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यदि फिर अद्वैतवादी यों कहें कि गुरु, शिष्य, जिज्ञासा, निर्णय, आदिका तिस प्रकार विभाग करना अविद्याके भेद प्रभेदोंसे हो रहा है । हम तब भी पूछेंगे कि वह अविद्या भी प्रतिपादकमें प्राप्त हुयी क्यों नहीं प्रतिपाद्य या साधारण मनुष्यों आदिमें प्राप्त हो जावेगी । जिससे कि वे सभी प्रतिपा दक बन सकें । अथवा उन शिष्य या सामान्य श्रोताओं में पडी हुयी अविद्या प्रतिपादकमें क्यों नहीं प्राप्त हो जावे, जिससे कि वह प्रतिपादक भी शिष्य बन जावे । जब कि एक ब्रह्मपनेसे उन प्रतिपाद्य आदि में कोई भेद ही नहीं है ऐसा अभेद होनेपर भी वह अविद्या विशिष्ट आत्माओं में प्राप्त होकर प्रतिपाद्य आदिके भेदको कैसे कर देती है ? कहिये न । इस विषय में हमारा चित्त अतीव आश्चर्यसे सहित होरहा है। भावार्थ — जो अविद्या ब्रह्मके जिस अंशमें गुरुपने की कल्पना कराती है वहां शिष्यपनेकी कल्पना क्यों न करा देवे ? अनेक गुरु अपने प्रिय शिष्य को या पुत्रको प्रकाण्ड विद्वान् बनाना चाहते हैं, किन्तु मन्दबुद्धियोंसे कुछ वश नहीं चलता है । कोई शिष्य भी अपन प्राचीन पढानेवाले अल्पज्ञ गुरुको कृतज्ञतावश व्युत्पन्न करना चाहते हैं । किन्तु स्थूल बुद्धिवाले वृद्ध गुरु या पितासे वश नहीं चलता, आपके पास इस अविद्याका नियम करनेवाला कोई भी कारण नहीं है, अतः आपकी तत्त्वव्यवस्थापर हमको आश्चर्य हो रहा है । यहां एक दृष्टान्त है कि एक श्रमात घसखोदा गंवारने हृष्ट पुष्ट, वैष्णव साधुको देखकर कहा कि महाराज ! मुझे भी अपना चेला बनालो । तिसपर साधुने पूछा कि तू क्या कार्य करना जानता है, गंवारने घास खोदना बताया । तत्र परिग्रही साधुने अपने घोडेके लिये घास मगानेकी स्वीकारता लेकर उसे चेला बना दिया। गंवार फिर भी अपने कर्मको कोसता हुआ दुःखी रहने लगा । एक दिन चेलाने गुरुसे कहा कि चेलापन में महान् दुःख है, अब तो महाराज मुझे तुम अपना गुरु बनालो । इसपर गुरुने क्रुद्ध होकर गंबारकी निकाल बाहर कर दिया । अद्वैतवादिओंको इस दृष्टान्तसे कुछ शिक्षा लेनी चाहिये ।
प्रतिपादकगतेयमविद्या प्रतिपाद्यादिगतेयमिति च विभागसंप्रत्ययोनाद्यविद्याकृत एवेति चेत्, किमिदानीं सर्वोऽप्यविद्याप्रपञ्चः । सर्वात्मगतस्तत्त्वतोस्तु सोऽप्यविद्यावशात्तथेति चेत्, तर्हि तत्त्वतो न कचिदविद्याप्रपञ्च इति न तत्कृतो विभागः, परमार्थतः एव प्रतिपादिकादिजीवविभागस्य सिद्धेः ।
अद्वैतवादी कहते हैं कि अविद्यामें अनेक भेद होना भी अविद्यासे ही हैं, यह प्रतिपादक में रहनेवाली अविद्या है और यह प्रतिपाद्यमें प्राप्त हुयी अविद्या है । यह जिज्ञासा करानेवाली अविद्या है। चौथी निर्णय करानेवाली अविद्या है । पांचमी उदासीन श्रोतापनेकी अविद्या है । इत्यादि