Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
१३९.
उपायों के बिना जान लिया जा सकेगा । इस प्रकार निर्णीत होता है कि उस आत्मतत्त्वके ज्ञापन करनेका उपाय वचन ही है । साध्यके न होनेपर हेतुका न रहना, यह अन्यथानुपपत्ति है । अविनाभाव, अन्यथानुपपत्ति और नान्तरीयक तथा व्याप्ति ये चारों पर्यायवाची ( एकार्थ ) शब्द हैं । जिस हेतुमें अन्यथानुपपत्ति नामका लक्षण चला जाता है वह सद्धेतु है, अपने साध्यका प्रकाशक है । दूसरोंके प्रति आत्मतत्त्वको सिद्ध करानेवाला श्रेष्ठ लक्षणसे युक्त ऐसा वचनरूप हेतु है । हिताहितको विचारनेवाले वचनोंके उच्चारणसे उस व्यक्ति में आत्मतत्त्वकी सिद्धि कर ली जाती है । जीवोंके कष्ट, तालु आदिके व्यापाररूप प्रयत्नसे उत्पन्न होनेवाले सार्थक या अनर्थक शब्दोंसे भी द्वीन्द्रिय आदिक जीवोंमें आत्माका अनुमान कर लिया जाता है । अथवा समझानेवाला प्रतिपादक दूसरोंके प्रति अपने वचनों द्वारा जीवसिद्धि कराता है ।
जीवात्मकमेव तदित्ययुक्तं, प्रतिपादकजीवात्मकत्वे तस्य प्रतिपाद्याद्यसंवेद्यत्वापत्तेः । प्रतिपाद्यजीवात्मकत्वे प्रतिपादकाद्य संवेद्यतानुषक्तेः, सत्यजीवात्मकत्वे प्रतिपाद्यप्रतिपादका संवेद्यत्वासंगात् । प्रतिपादकाद्यशेषजीवात्मकत्वे तदनेकत्वे विरोधादेकवचनात्मकत्वेन तेषामेकत्वसिद्धेः ।
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यानी वचनको प्रतिपाद्य या
रहे
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यदि कोई अद्वैतवादी यों कहे कि जीवको सिद्ध करनेवाला वह वचन भी जीव, स्वरूप ही है. अजीव तत्त्व नहीं, आचार्य समझाते हैं कि उनका यह कहना युक्तिशून्य है । क्योंकि उस वचनको यदि उपदेश देनेवाले प्रतिपादक जीवसे तदात्मक माना जावेगा प्रतिपादकका स्वभाव माना जावेगा, तब तो समझने के पात्र हो श्रोताजन एवं उदासीन तटस्थ बैठे हुये सामान्य जनों करके उस वचनका संवेदन न हो सकने का प्रसंग होगा । भावार्थ – गुरुके सुख, दुःख, ज्ञान आदि चेतनात्मक पदार्थोंका गुरुको ही प्रत्यक्ष हो सकता है। अतिनिकटवर्ती भी शिष्यजन गुरुकी आत्माके साथ तादात्म्य रखनेवाले भावोंका प्रत्यक्ष नहीं कर पाते हैं । सर्वज्ञके सिवाय अन्य जीव दूसरोंके चेतन पदार्थोंका अनुमान या आगमज्ञान भलें ही कर लेवें । ऐसी दशामें वक्ताकी आत्मासे तादात्म्य रखनेवाले वचनका पार्श्ववर्ती श्रोताओंको भला संवेदन ( प्रत्यक्ष ) कैसे हो सकता है ? तथा आप अद्वैतवादी वचनको यदि सुननेवाले प्रतिपाद्य के जीवसे तदात्मक हो रहा मानोगे, ऐसी दशा में प्रतिपाद्य तो अपने जीवस्वरूप वचनोंका प्रत्यक्ष कर ही लेगा । किंतु प्रतिपादक और अन्य श्रोता तथा सभाके जनों आदिको उस वचनका संवेदन न हो सकेगा। चेतनात्मक पदार्थोका प्रत्यक्षज्ञान सर्वज्ञ और स्व के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता है । सर्वज्ञ या अतीन्द्रियदर्शीके उस समय शवसे उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान स्वीकार नहीं किया है । यदि अद्वैतवादी यों कहें कि सभामें बैठे हुए जीवोंकी आत्मास्वरूप वचन हैं तब तो सभाके जन उन वचनोंका संवेदन कर लेवेंगे। किंतु मुख्य प्रतिपादक और प्रधान शिष्य द्वारा वे
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