Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तचार्य लोकवार्त
प्रकारसे अविद्याओंका विभाग कर भले प्रकार विश्वास करना भी अनादि कालसे लगी हुयी अविद्यासे किया गया ही है । ऐसा कहोगे तो हम जैन पुंछते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत् भी क्या इस समय अविद्याका ही प्रपञ्च ( झझंट ) है ? इस प्रकार तो सम्पूर्ण आत्माओं में अविद्याका प्रपञ्च वास्तविक रूपसे प्रविष्ट होरहा मानलो । अर्थात् सर्व व्यापक एक ब्रह्म मानना भी अविद्यासे है और सम्पूर्ण आत्मतत्त्वको स्वीकार करना भी अविद्यासे है । ऐसी दशामें अविद्या कोई दोष न समझा जा सकेगा । यदि आप यों कहें कि वह अविद्याका प्रपञ्च भी अविद्याके अधीन होकर ही है । ऐसा कहोगे तब तो यह सिद्ध हो जाता है कि वास्तवमें देखा जावे तो कहीं भी अविद्याका प्रपञ्च नहीं है । भावार्थ-यदि अविद्या अविद्यारूप हो जावे तो वास्तविक पदार्थ कह दिया जाता है। जैसे असत्यको असत्य कह देना सत्य हो जाता है, इस प्रकार उस अविद्याके द्वारा किये गये प्रतिपाद्य प्रतिपादकोंकी अविद्या विभाग नहीं हो सकते हैं । प्रतिपाद्यपने आदि की अविद्याको भी अविद्यासे कल्पित माना जावेगा तो वास्तविक रूपसे ही प्रतिपादक, प्रतिपाद्य, सभ्य, आदि जीवोंके विभाग सिद्ध हो जायेंगे, जो कि अद्वैत के विघातक हैं ।
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ततो नैकात्मव्यवस्थानं येन वचसोशेषजीवात्मकत्वे यथोक्तो दोषो न भवेदिति न जीवात्मकं वचनम् । तद्वच्छरीरादिकमप्यजीवात्मकमस्माकं प्रसिध्यत्येव ।
तिस कारण अद्वैतवादियोंके द्वारा एक ही आत्मतत्त्वकी व्यवस्था नहीं हो सकी, जिससे कि वचनको सम्पूर्ण जीवोंसे तदात्मक माननेपर हमारा पहिले कहा हुआ दोष लागू न होवे । अर्थात् पूर्व में कहे अनुसार प्रतिपादक आदिकोंके अनेक होनेपर विरोध दोष है । एक वचन के साथ अनेक प्रतिपादक आदिकोंका अभेद माननेपर इन सबको एकपना सिद्ध हो जावेगा, जो कि इष्ट नहीं है । इस प्रकार अब तक सिद्ध हुआ कि वचन जीवस्वरूप पदार्थ नहीं हैं। किन्तु पौगलिक अजीवरूप तत्त्व है। उसके समान शरीर, श्वास, उत्श्वास, घट, आकाश आदिक भी हम स्याद्वादियों के यहाँ अजीवतत्त्वरूप प्रसिद्ध हो ही रहे हैं । प्रसिद्ध पदार्थोंको विपरीतपनेसे कहना समुचित नहीं है ।
बाह्येन्द्रियपरिच्छेद्यः शद्बो नात्मा यथैव हि ।
तथा कायादिरर्थोपि तदजीवोऽस्ति वस्तुतः ॥ ४२ ॥
जिस कारणसे कि शद्ब बहिरंग कर्ण इन्द्रियसे जाना जाता है, इस कारण जैसे शद्ब आत्मारूप पदार्थ नहीं है तैसे ही बहिरिन्द्रियोंसे जानने योग्य होनेके कारण शरीर, श्वास, घट आदि अर्थ - भी जी नहीं हैं, किन्तु वे सब वास्तवपनेसे अजीव ही हैं, यानी वास्तविक अजीव तत्त्व हैं ।
न केवलं प्रतिपादकस्य शरीरं लिप्यक्षरादिकं वा परप्रतिपत्तिसाधनं नचनवत् साक्षात् परसंवेद्यत्वादजीवात्मकम् । किं तर्हि ? बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वाच्च । जीवात्मकत्वे तदनुपपतेरिति सूक्तं परार्थसाधनान्यथानुपपत्तेर जीवास्तित्वसाधनम् ।