Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
वचन संवेद्य न हो सकेंगे, यह बडा बुरा प्रसंग प्राप्त हुआ। यदि इन सब झगडोंकी निवृत्तिके लिये ब्रह्माद्वैतवादी उन वचनोंको प्रतिपादक आदि सम्पूर्ण जीवस्वरूप मानेंगे तो ऐसी दशामें हम पूछते हैं कि वे प्रतिपादक, प्रतिपाद्य और सभ्य अनेक जीव हैं, तथा वचन उनसे अभिन्न हैं, तब तो वचन भी अनेक मानने पड़ेंगे। अनेक पुरुष और अनेक वचनोंके स्वीकार करनेपर आपको अपने अद्वैतवादसे विरोध जावेगा । अनेक आत्माओंके चेतनात्मक पदार्थोका परस्परमें सांकर्य हो जावेगा। थानी चाहे जिसके सुख, दुःखका अन्य आत्माओंमें संवेदन किया जा सकेगा । यदि वचनोंको एकरूप माना जावे और एक वचनसे प्रतिपाद्य आदि अभिन्न हैं तब तो उन प्रतिपाद्य आदिकोंको एकपना सिद्ध होता है जो कि अनिष्ट है । यहां अद्वैतवादी इष्टापत्ति नहीं कर सकते हैं, कारण कि कोई जीव प्रतिपादक हैं, अन्य जीव प्रतिपाद्य हैं, तथा तीसरे प्रकारके सभासद जन उदासीन बैठे हैं। इस प्रकारका भेद उन जीवोंका एकपना सिद्ध न होने देगा । वादी प्रतिवादियोंके सिद्धान्तोंको निष्पक्ष होकर सुनना या अनावश्यक समझकर सुनना यहां उदासीनपना है।
सत्यमेक एवात्मा प्रतिपादकादिभेदमास्तिष्णुते अनाद्यविद्यावशादित्यप्युक्तोत्तरप्रायमात्मनानात्वसाधनात् । ____ अद्वैतवादी यों कहते हैं कि सत्यरूपसे देखा जावे तो एक ही आत्मा है । " अविनाशी वा अरे अयमात्मा सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ” इत्यादि श्रुतिवाक्यसे सत्यरूप एक ब्रह्म माना गया है। संसारी जीवोंके अनादि कालसे लगी हुयी अविद्याके वशसे वह एक ही ब्रह्म प्रतिपादक, प्रतिपाद्य आदि भेदोंको व्याप्त कर लेता है । अब आचार्य कहते हैं कि इसका भी उत्तर पहिले प्रकरणोंमें हम प्रायः कह चुके हैं । आत्माके नानापनको भले प्रकार सिद्ध कर दिया गया है।
कथं चात्मनः सर्वथैकत्वे प्रतिपादकस्यैव तत्र सम्पतिपत्तिर्न तु प्रतिपाद्यस्येति प्रतिपद्यमहि । तस्यैव वा विप्रतिपत्तिर्न पुनः प्रतिपादकस्येति तथा तद्भेदस्यैव सिद्धेः।
आत्माको सर्वथा एकपना माननेपर प्रतिपादकको ही उस आत्मामें भले ग्रंकार प्रमिति होरही है। किन्तु प्रतिपाव ( शिष्य ) को परब्रह्मकी पहिलेसे प्रमिति नहीं होरही है । इस बातको हम कैसे समझ सकते हैं ? जब कि ब्रह्मतत्त्व एक है तो प्रतिपाद्य प्रतिपादक भी एक ही हैं । फिर क्या बात है कि गुरुको आत्मतत्त्वका निर्णय होवे और चेलाको न होवे । यों तो गुरुका छात्रको समझानेके लिये प्रयत्न करना व्यर्थ है । अथवा उस प्रतिपाद्यको ही ब्रह्मतत्त्वके समझनेके लिये संशयरूप विवाद होवे । किन्तु फिर प्रतिपादकको ब्रह्मतत्त्वमें जिज्ञासाके लिये विवाद न होवे, यह कैसे समझा जासकता है ? देवदत्तके मुखने तृप्तिपूर्वक भोजन कर लिया है तो देवदत्तके पेट, हाथ, छाती आदि भी तृप्त हो जाते हैं, उदर तृप्त हो जावे और हाथ भूखे रहें ऐसा नहीं होता है। तथा यों तो अद्वैतवादियोंके यहां पतिव्रतापन और अचौर्यव्रतकी भी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है । यदि एकको प्रतिपाद्य अन्यको प्रतिपादक अथवा एकके ब्रह्मतत्त्वकी जिज्ञासा होना दूसरके समझा देनेकी शक्तिका