Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
१३१
सकता है, उसी प्रकार देवदत्त यदि जिनदत्तका निषेध करेगा तो जिनदत्त भी देवदत्त इकेले ठूंठका निषेध कर देगा । जिस प्रकार तुम दूसरेको देखोगे, उसी प्रकार वह तुमको देखेगा। अन्य सबका तुम निषेध करते रहो और वे तुम्हारा निषेध न करें, ऐसे पक्षपातयुक्त नियम करनेमें कोई विशेषता नहीं है । यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकार मानोगे यानी अपना अस्तित्व अवश्य स्वीकार करोगे, तब तो अन्य आत्माएं भी अपने अपने अस्तित्वका स्वयं संवेदन कर लेवेंगी, वही तो जीवोंका नानापन सिद्ध हो गया । सत्य पदार्थकी व्यवस्थाका भले प्रकार आश्रय लेनेपर युक्तियोंके द्वारा जीव आत्माओंका अनेकपना सिद्ध हो जाता है । किसी एक उद्घान्त चित्तवाले व्यक्तिकी अपेक्षासे जगत्के पदार्थ व्यव स्थित नहीं हैं, किन्तु समीचीन प्रमाणोंसे उनकी सत्ता निर्णीत है ।
मत्तोऽन्येपि निरुपाधिकं स्वरूपमात्रमव्यभिचारि संविदन्तीति निर्णीतेरसम्भवात् तत्र प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेरव्यभिचारिणो लिंगस्याभावादनुमानानुत्थानादिति वचने सर्वशून्यतापत्तिः । त्वत्संविदोपि तथान्यैर्निश्वेतुमशक्तेः सर्वथा विशेषाभावात् । यदि पुनरपरैरनिश्वयेपि तथा स्वसंविदः स्वयं निश्वयात् सत्यत्वसिद्धिस्तदां त्वया निश्चेतुमशक्यानामपि तथा परसंविदां सत्यत्वसिद्धेः सिद्धं पुंसां नानात्वं पारमार्थिकम् ।
1
यदि अद्वैतवादियों कहेगा कि मुझसे अतिरिक्त दूसरे जीव भी विशेषणोंसे रहित माने गये केवल प्रतिभासरूप विधिको ही व्यभिचार आदि दोषोंसे रहित होकर संवेदन कर रहे हैं । इस प्रकारसे दूसरे जीवोंका निर्णय करना सर्वथा असम्भव है । क्योंकि अन्य अनेक आत्माओं के जाननेमें प्रत्यक्ष प्रमाणकी प्रवृत्ति तो है नहीं, और व्यभिचार, विरुद्ध आदि दोषोंसे रहित हो रहा कोई ज्ञापक हेतु भी नहीं है । अतः अन्य आत्माओंके शुद्ध प्रतिभासको जाननेवाले अनुमान प्रमाणका भी उत्थान नहीं हो सकता है । अद्वैतवादियोंकी ओरसे ऐसा कहे जानेपर तो सर्व पदार्थोंके शून्यपनका प्रसंग होगा, अर्थात् शून्यवाद छा जावेगा, सब का अभाव हो जावेगा, जैसे अन्यके प्रतिभासों का तुमको निर्णय नहीं हो पाता है, तिसी प्रकार अन्य जीवों करके तुम्हारे सम्वेदनका भी निर्णय नहीं किया जा सकता है, सभी प्रकारोंसे कोई भी अन्तर नहीं है । यदि फिर आप अद्वैतवादी यों कहेंगे कि दूसरोंके द्वारा हमारी संवित्तिका निर्णय भले ही न होवे तो भी मुझको तो तिस प्रकार स्वयं अपनी संवित्ति ( परब्रह्म ) का संवेदन हो रहा है, अतः मेरे अकेले ब्रह्मको सत्यपना सिद्ध है । इसपर आचार्य कहते हैं कि तब तो तुम्हारे द्वारा दूसरोंके ब्रह्मका निश्चय करना भले ही अशक्य होवे फिर भी उन उन भिन्न व्यक्तियोंके द्वारा अपने अपने चैतन्यका तिसी प्रकार स्वयं संवेदन हो रहा है, अतः अन्य चैतन्योंको भी सत्यपना सिद्ध हो जाता है । इस कारण भिन्न भिन्न पुरुषों को - नेकपना वास्तविक सिद्ध हुआ ।
आत्मानं संविदन्त्यन्ये न वेति यदि संशयः ।
तदा न पुरुषाद्वैतनिर्णयो जातु कस्यचित् ॥ ३५ ॥