Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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अद्वैतवादी कहते हैं कि पुरुषाद्वैतकी विधिको सर्जनेवाले वेदरूप आगमकरके एकत्वका ही प्रकाश हो रहा है और निषेधको सर्वथा नहीं जानता हुआ प्रत्यक्षप्रमाण भी विधायक होकर प्रतिष्ठित होता हुआ तिस एकत्वके ही विधान करनेमें प्रवृत्ति कर रहा है। तिस विधान करनेवाले प्रत्यक्षकरके एकत्वको प्रकाश करनेवाले उस आगमका विरोध नहीं है । भावार्थ-एकत्वको ज्ञापित करनेवाले वेदरूप आगमका संवादक प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित है । तिस आगम और प्रत्यक्षसे ब्रह्माद्वैतका निर्णय हो जाता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो अनेकपनेके प्रतिपादक आगमका भी उस प्रत्यक्षसे कोई विरोध नहीं है । अतः अनेक जीवोंका भी निर्णय होजावे, अर्थात् अनेकका अर्थ एकका निषेध नहीं है, किन्तु एक जैसे भावपदार्थ है तैसे ही बहुतसे एकोंका समुदायरूप अनेक भी भावपदार्थ हैं । अतः आपके मतानुसार माना गया पदार्थोकी विधिको ही प्रकाश करनेवाला प्रत्यक्षज्ञान अनेक जीवोंके ज्ञापक आगम प्रमाणका भी सम्वादक हो जाता है । इसी बातको स्पष्टरूपसे कहकर दिखलाते हैं ।
आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेदविपश्चितः। न नानात्वागमस्तेन प्रत्यक्षेण विरुध्यते ॥ ३६ ॥ तेनानिषेधताऽन्यस्याभावाभावात् कथञ्चन। संशीतिगोचरत्वाद्वान्यस्याभावाविनिश्चयात् ॥ ३७ ॥
अद्वैत मतानुसार पण्डितजन प्रत्यक्ष प्रमाणको विधान करनेवाला कहते हैं, प्रत्यक्ष प्रमाणको निषेध करनेवाला नहीं मानते हैं। भावार्थः—पदार्थोकी सत्ताका बोधक प्रत्यक्ष प्रमाण है । अभावोंको या पदार्थोके निषेधको प्रत्यक्ष नहीं जानता है, जहां गौ है और अश्व नहीं है, वहां गौकी सत्ताका विधान प्रत्यक्ष प्रमाणोंसे हो जावेगा और अश्वका निषेध प्रत्यक्षसे न हो सकेगा। मीमांसक लोग तो अभावको जाननेके लिये स्वतन्त्र अभाव प्रमाणको मानते हैं । किन्तु अद्वैतवादी तो पदार्थोके अभावको और अभाव प्रमाणको ही मूलसे नहीं स्वीकार करते हैं । जैनसिद्धांत और नैयायिकके मतमें अभावका ज्ञान प्रत्यक्षसे भी होता हुआ माना गया है । यदि कुछ देरके लिये इस सिद्धांतको भी मान लिया जावे कि प्रत्यक्ष प्रमाण केवल विधान करनेवाला ही है । निषधक नहीं है तो भी तिस प्रत्यक्ष करके नानापनको प्रतिपादन करनेवाले आगमका कोई भी विरोध नहीं आता है। प्रत्युत प्रत्यक्ष प्रमाण अनेक जीवोंके प्रतिपादक करनेवाले आगमका सहकारी हो जाता है । निषेध को नहीं करनेवाले उस प्रत्यक्ष करके अन्य पदार्थोका अभाव सिद्ध करना किसी भी प्रकारसे नहीं सम्भव है । आप अद्वैतवादियोंके मतानुसार भी वह प्रत्यक्ष सबकी विधिको ही जतावेगा। जो प्रत्यक्ष प्रमाण अन्यका अभाव नहीं करता है, वह अनेकपनको अवश्य सिद्ध कर देवेगा। अथवा अन्य पदार्थोके अभावका विशेष रूपसे निश्चय न हो जानेके कारण वे पदार्थ संशयज्ञानके