Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
विषय हो जायेंगे । अन्य अनेक पदार्थोंका संशय बने रहनेपर सर्वथा अद्वैतकी सिद्धि नहीं हो सकती है । किसी पदार्थका संशय बना रहनेपर उसका सर्वथा निषेध कर देना सर्वथा अन्याय है । जीवितI पनेकी संदिग्ध अवस्था होनेपर मृत सारिखे शरीरका अग्नि संस्कार कर देना महान् पाप है । ऐसी क्रिया करनेसे राजाकी ओरसे भी विशेष दण्ड प्राप्त होता है । “ आदुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेध विपश्चितः । नैकत्वे आगमस्तेन प्रत्यक्षेण प्रबाध्यते । इस ब्रह्मवादिओंकी कारिकाके उत्तर में कटाक्षरूप छत्तीसवीं वार्त्तिक आचार्योंने कही है ।
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भवतु नाम विधातृप्रत्यक्षमनिषेधृ च तथापि तेन नानात्वविधायिनो नागमस्य विरोधः सम्भवत्येकत्वविधायिन इव विधायकत्वाविशेषात् ।
अद्वैतवादी या जैमिनिके मतानुसार यह सिद्धान्त भलें ही रहो कि प्रत्यक्षप्रमाण पदार्थोंकी सत्ताका केवल विधान करता है । और वह किसीका निषेध नहीं करता है । अतः अद्वैतवादी कहते हैं कि प्रत्यक्षप्रमाण एकत्वका विधान करनेवाला है तो भी हम जैन कहते हैं कि उस प्रत्यक्ष करके अनेकपनेको विधान करनेवाले आगमका कोई विरोध नहीं सम्भवता है । क्योंकि प्रत्यक्ष जैसे एकत्वका विधान करनेवाला है तैसे ही अनेकत्व ( बहुत्व ) का भी विधान करनेवाला है, दोनों प्रत्यक्षोंमें विधायकपनेसे कोई अन्तर नहीं है ।
नानात्वमनिषेध
कथमेकत्वमनिषेधत्प्रत्यक्षं नानात्वमात्मनो विदधातीति चेत्, देकत्वं कथं विदधीत १ ।
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अद्वैतवादी कहते हैं कि एकपनेको नहीं निषेध करता हुआ प्रत्यक्ष भला जीवोंके नानापनको कैसे विधान कर देता है ? बताओ । अर्थात् एकपना अनेकपनेसे विरुद्ध है, जैनलोग हमारे माने हुए एकपको प्रत्यक्ष द्वारा जान लिया गया स्वीकार कर चुके हैं, ऐसी दशामें आप जैन उस एकपनेका निषेध न करते हुए उससे विरुद्ध कहे गये नानापनका आत्मतत्त्वको प्रत्यक्ष द्वारा कैसे विधान करा सकेंगे । अद्वैतवादियोंके ऐसा कहनेपर तो हम आईत भी कहते हैं कि नानापनको नहीं निषेध करता हुआ प्रत्यक्ष भला आत्माके एकपनेका भी कैसे विधान कर लेवेगा ? कहिये । भावार्थ – अद्वैतवादियोंने प्रत्यक्षको सर्व प्रकारसे विधान करनेवाला माना है, तब तो प्रत्यक्ष नानापनेका भी विधान करेगा, ऐसी दशामें नानापनको नहीं निषेध करता हुआ प्रत्यक्ष उससे विरुद्ध एकपनका विधान कैसे कर सकेगा ? इसका आप भी उत्तर दीजिये ।
तस्यैकत्वविधानमेव नानः त्वप्रतिषेधकत्वमिति चेत्, नानात्वविधानमेवैकत्वनिषेधनमस्तु ।
यदि अद्वैतवादीयों कहें कि उस प्रत्यक्षका आत्माके एकपनेको विधान करना ही परिशेषन्यायसे आत्मा के नानापनको निषेध करनेवालापन है, ऐसा कहनेपर तो हम जैन भी कहते हैं कि प्रत्यक्षक आत्माको नानापनका विधान ही गम्यमान न्यायसे एकपनेका निषेध करना समझ लो । न्याययुक्त बात में पक्षपात करना ठीक नहीं है ।