Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
यदि अद्वैतवादीयों कहें मुझको अपनी आत्माका पूर्ण निर्णय है, अतः मैं ही अकेला ब्रह्म हूँ | अन्य जीव अपनी अपनी आत्माका संवेदन करते हैं अथवा नहीं करते हैं इसका मुझको... संशय है । अतः मैं दूसरे आत्माओंकी सत्ताको नहीं स्वीकार करता हूं । इसपर आचार्य महाराज कहते हैं कि तब तो किसी एक व्यक्तिको कभी पुरुषाद्वैतका निर्णय न हो सकेगा । अर्थात् अन्य आत्माएं रूप परोक्ष पदार्थोंके निर्णय करनेका उपाय जब तुम्हारे पास नहीं है । तब तो अद्वैत परब्रह्मका निर्णय न कर सकोगे, ब्रह्मके अतिरिक्त अन्य आत्माओंके अभावका निर्णय किये बिना ( एकपने ) का निश्चय नहीं हो सकता है । अन्य आत्माओंका संशय ( सत्ताकी सम्भावना ) बने रहनेपर उन संदिग्ध आत्माओंका सर्वथा अभाव कर देना बुद्धिमत्ता नहीं है।
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मत्तः परेप्यात्मनः स्वसंविदन्तो न सन्त्येवेति निर्णये हि कस्यचित्पुरुषाद्वैते निर्णयो युक्तो न पुनः संशये तत्रापि संशयप्रसंगात् ।
मुझसे भिन्न अपना अपना संवेदन करते हुए दूसरे आत्मायें भी जगत् में कोई नहीं ही ह, ऐसा निर्णय होनेपर ही तो चाहे किसी व्यक्तिको ब्रह्माद्वैतमें निर्णय करना युक्तिसहित हो सकता है। किन्तु अन्य आत्माओंके चैतन्यका संशय होनेपर फिर किसी भी प्रकारसे अकेले ब्रह्मका निर्णय होना नहीं बनता है, क्योंकि ऐसा माननेपर तो उस ब्रह्माद्वैत में संशय होनेका प्रसंग हो जावेगा । अकेले घटका निर्णय तब हो सकता है जब कि घटके अतिरिक्त अन्य पट, पुस्तक आदिकोंके अभावका निर्णय होय । किंतु पट आदिकों के संशय होने पर अकेले घटकी ही सत्ताका भी संशय हो जावेगा । प्रकृतमें भी अन्य चैतन्योंका संशय होनेपर शुद्ध ब्रह्माद्वैतका भी संशय बना रहेगा । पुरुष एवेदं सर्व " इत्यागमात्पुरुषाद्वैतसिद्धिरिति चेत् “ सन्त्यनन्ताजीवा ” इत्यागमान्नानाजीवसिद्धिरस्तु ।
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आचार्य आक्षेप करते हैं कि आपको यह जितना भर भी जगत् दीख रहा है सबका सब परब्रह्मरूप है । इस प्रकार वेदवाक्यरूप आगमसे पुरुषाद्वैतकी सिद्धि करते हैं “ एकमेवाद्वयं ब्रह्म नो नाना एक ही परब्रह्म तत्त्व है । अनेक कोई वास्तविक तत्त्व नहीं हैं आदि ऐसी वेदकी श्रुतियोंसे यदि अद्वैतकी सिद्धि करोगे, तब तो ऐसे भी प्रामाणिक आगमोंके वाक्य विद्यमान हैं कि जगत् में अनन्तजीव हैं " अस्थि अनंता जीवा " संसारिणो मुक्ताश्च " लोअग्ग णिवासिणो सिद्धा" जीव अनन्तानन्त हैं, अनेक जीव संसारी हैं, और अनेक जीवोंने मोक्षको प्राप्त कर लिया है, अनन्तानन्त जीव लोकके अग्रभागमें विराज रहे हैं, इन आगमवाक्योंसे अनेक जीवोंकी सिद्धि भी होजाओ । पुरुषाद्वैतविधित्रगागमेन प्रकाशनात् प्रत्यक्षस्यापि विधातृतया स्थितस्य तत्रैव प्रवृत्तेस्तेन तस्याविरोधात् ततः पुरुषाद्वैतनिर्णय इति चेत्, नानात्वागमस्यापि तेनाविरोधान्नानाजीवनिर्णयोऽस्तु । तथाहि: -