Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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तो पिछलगा होकर घिसटते जाते हैं। योगसे कर्म खिच आते हैं जैसे कि मोर के पंखको पुस्तकमें भींचकर खींच देनेसे आकर्षणशक्ति उत्पन्न हो जाती है और वह पंख छोटे तृण, पत्र, आदिको खींच लेता है, तैसे ही आत्माके प्रदेशोंमें कम्प हो जानेसे कर्म, नोकर्म, का आकर्षण हो जाता है । इस द्रव्ययोगको आस्रव कहते हैं । तथा आत्माकी कर्म नोकर्मको आकर्षण करनेवाली शक्तिको भावयोग कहते हैं । अनादि काल से प्रारम्भ कर तेरहवें गुणस्थान तक भावयोग नामकी पर्यायशक्ति जीवमें बन बैठती है ।
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ज्ञानावरण आदि कर्मरूपपरिणत होने योग्य कार्माणवर्गणारूप पुद्गलको ग्रहण करना बन्धका लक्षण है। नोर्म बन्धकी यहां विवक्षा नहीं है । आस्रवका रुक जाना संवरका लक्षण है । सञ्चित कर्मोंका सदाके लिये और प्रागभाव रहित होकर एकदेश एकदेश रूपसे अच्छा क्षय हो जाना निर्जराका लक्षण है । सम्पूर्ण कर्मोंका वर्तमान में और भविष्य के लिए भी ध्वंस हो जाना मोक्षक लक्षण है । इस प्रकार जीव आदिकोंके लक्षण इस शास्त्र के अग्रिम अध्यायोंमें कहे जायेंगे । वे लक्षण सभी युक्ति और आगमसे अविरुद्ध हैं । अतः उन उन प्रकरणोंमें समझ लेना चाहिये । विशेष यह है कि कर्मो समान नोकर्मके भी आस्रव, बन्ध, संवर निर्जरा, और मोक्ष होते हैं, किंतु सिद्ध अवस्था प्राप्त करनेके लिये नोकर्मका क्षय विशिष्ट उपयोगी नहीं है । कर्मोंका क्षय हो जानेसे नोकर्मका ध्वंस तो स्वतः ही हो जाता है । क्योंकि शरीर, वचन और मनके बनाने में औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, अंगोपाङ्ग, स्वर, आदि नाम कर्मोंके उदय कारण हैं । कारणके अभाव होने पर भविष्य के कार्यका भी अभाव हो जावेगा। संचितका नाश तो सुलभतासे हो ही रहा है । मनुष्य और तिर्यञ्चोंके एक बार मर जानेपर भी पूरे औदारिक शरीरका मोक्ष हो जाता है । कमसे कम दस सहस्र ( हजार ) वर्ष और अधिकसे अधिक तेतीस सागर पीछे वैक्रियिक शरीरका सर्वथा मोक्ष हो जाता है उस समय शरीरका एक अंश भी शेष नहीं रहता है । आहारक शरीरका अन्तर्मुहूर्त में और तैजस शरीरका छयासठ (६६) सागर में ध्वंस हो जाता है। हां, भारतवर्ष में मनुष्योंकी धाराके समान तैजसकी धारा बनी रहेगी अर्थात् वर्तमानके तैजस शरीरका एक टुकडा भी छयासठसागर पीछे नहीं मिलेगा निराला ही तैजस शरीर दीख पडेगा । कार्माणशरीर ही प्रवाहरूप करके अनादिसे सम्बद्ध हो रहा है । विग्रह गतिमें जीवके पास केवल तैजस और कार्मणशरीर रह जाते हैं । सब सांसारिक सुख दुःखोंका मूल कारण कार्मणशरीर ही है । अतः कर्मोंके ही आसव, बन्ध, आदिका वर्णन किया है । यों तो प्रतिदिन के खाद्य, पेय, वायु, पदर्थोंमें भी आस्रव आदि की व्यवस्था है । बुभुक्षित जीव भोजन करता हैं (जीव ) बहुभाग आहारवर्गणायें जिनमें मिली हुयी हैं ऐसे मोदक, चावल, रोटी, दाल, दुग्ध, घृत, फल, घास, अमृत, मिट्टी, आदि पौद्गलिक पदार्थोंका भोजन किया जाता है ( अजीव ) । मुखके द्वारा भोज्य पदार्थों का आहार करता है, कवलाहारके अतिरिक्त लेप, ओज आदि आहरोंको शरीरके अन्य अवयवोंके द्वारा भी ग्रहण करता है ( आसव ) । आहार
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