Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
११२
तत्त्वार्थश्लोकवार्त
पापों को मानते हैं । बन्ध होने योग्य अजीव पुद्गल द्रव्यको स्वीकार नहीं करते हैं । वे अजीव तत्त्वको मानते ही नहीं हैं। सब संसार जीवमय है । अतः पौगलिक कर्म, नोकर्म, को मानने के लिये अद्वैतवादी बाध्य न किये जासकेंगे । इस कारण नौ या छह अथवा चार तत्त्वोंको न मानकर जीव आदिक सात तत्त्व ही श्रद्धान करने योग्य हैं । मोक्षके उपयोगी सात तत्त्व ही तत्त्व होसकते हैं न्यून या 1 अधिक नहीं। यहांतक सूत्रकी पहिली वार्त्तिकके अनुसार उठाये गये प्रकरणका समचीन अकाट्य युक्तियोंसे उपसंहार कर दिया गया है ।
जीवादीनामिह ज्ञेयं लक्षणं वक्ष्यमाणकम् ।
तत्पदानां निरुक्तिश्च यथार्थानतिलंघनात् ॥ १९ ॥
इस सूत्र कहे गये जीब, अंजीव, आदि तत्त्वोंका निर्दोष लक्षण स्वयं ग्रन्थकारके द्वारा भविष्य ग्रन्थमें कहा जायेगा, सो समझ लेना चाहिये । द्वितीय अध्यायमें जीवका लक्षण उपयोग है ऐसा कहनेवाले हैं | पांचवेंमें अजीवोंका लक्षण कहा जावेगा। छठे, सातवें, अध्यायमें आस्रवका, आठवेंमें बन्धका, नौवेंमें संवर और निर्जराका तथा दशवें अध्यायमें मोक्षका लक्षण और विवरण hot रूपसे ग्रन्थकार कहेंगे । तथा जीव आदिक पदोंका धांतु, नाम, प्रत्यय, समास, इनके द्वारा निर्वचन करना भी वास्तविक अर्थका उल्लंघन न करनेसे ( न करते हुए ) समझ लेना चाहिये | भावार्थ - जीव आदि शब्दोंकी व्युत्पत्ति इस ढंगसे करना जिससे कि मुख्य अभीष्ट अर्थका अतिक्रमण न हो जाये और त्रुटि भी न रह जावे ।
जीवस्य उपयोगलक्षणः सामर्थ्यादजीवस्यानुपयोगः, आस्रवस्य कायवाङ्मनः कर्मात्मको योगः, बन्धस्य कर्मयोग्यपुद्गलादानं, संवरस्यास्रवनिरोधः, निर्जरायाः कर्मैकदेशविप्रमोक्षः, मोक्षस्य कृत्स्नकर्मविप्रमोक्ष इति वक्ष्यमाणं लक्षणं जीवादीनामिह युक्त्या - गमाविरुद्धमवबोद्धव्यम् ।
मिले हुए पदार्थोंमेंसे जाननेके लिये विवक्षित पदार्थको पृथक् करनेवाला धर्म लक्षण क जाता है। जीवका लक्षण उपयोग है । जीवका लक्षण उपयोग करनेसे विना कहे हुए प्रकरणक सामर्थ्य करके अर्थापत्तिके द्वारा ही यह ज्ञात हो जाता है कि अजीवका लक्षण अनुपयोग है अर्थात् जिसमें ज्ञानोपयोग या दर्शनोपयोग शक्ति अथवा व्यक्तिरूपसे नहीं पाये जाते हैं वह अजीव है । आस्रवका लक्षण योग है । आत्माके साथ बन्धनेवालीं और शरीर, वचन, मन के लिये उपयोगी होरहीं कारणरूप आहारवर्गणा या कार्माणवर्गणा और भाषावर्गणा या मनोवगणा इनका तथा पहिली सञ्चित वर्गणाओंसे बने हुए शरीर, वचन, मन, का अवलम्ब लेकर आत्माके प्रदेशकम्पस्वरूप योग उत्पन्न होता है, यह द्रव्ययोग है । तेजस्वर्गणाओंमें स्वतन्त्र योग पैदा करानेकी योग्यता नहीं है । जैसे हाथ, पाद छाती स्वतन्त्र रूपसे चलनेमें कारण होते हैं, नाक, ग्रीवा, कान, 1