Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
चूल्हेमें है, किन्तु जैनसिद्धान्तमें नैयायिकोंके समान भाव और भाववान् में सर्वथा भेद नहीं माना जाता है । अतः उष्णता और अग्निका तथा ज्ञान या आत्माका भी एकार्थ ( समानाश्रयत्व ) पना बन जाता है । तैसे ही भाववाची तत्त्व शद्बका भाववान्को कहनेवाले जीव आदिके साथ समानाश्रयता हो जाती है। कोई भी विरोध नहीं है । द्रव्यके गुण, पर्याय और स्वभाव उस आश्रयभूत द्रव्यसे अभिन्न हैं । फिर भी कथञ्चित् भेद है। घटत्व, पटत्व, आत्मत्व, आदि जातियां एकपनेसे ही प्रसिद्ध होरही हैं । अतः विधेय दलके तत्त्वशब्दको एक वचनान्त कहा है और देवदत्त, इन्द्रदत्त, घट, पट, पुस्तक आदि व्यक्तियें बहुतरूपसे सदा प्रसिद्ध हैं । इस कारण व्यक्तियोंका बहुपना प्रसिद्ध करनेके प्रयोजनकी अपेक्षासे समासके अन्तमें पडे हुए मोक्षपदको बहुवचन कहा है।
तस्य भावस्तत्त्वमिति भावसामान्यस्यैकत्वात्समानाधिकरणतया निर्दिश्यमानानां जीवादीनां बहुत्ववचनं विरुध्यत इति चेत् न, भावतद्वतोः कथञ्चिदभेदादेकानेकयोरपि समानाधिकरण्यदर्शनात् सदसती तत्त्वमिति जातेरेकत्ववत् । सर्वदा व्यक्तीनां बहुत्वरव्यापनार्थत्वाच्च तयोरेकवचनबहुवचनाविरोधः प्रत्येतव्यः।
____ यहां कोई शंका करता है तिस अर्थका जो भाव है वह तत्त्व है । इस प्रकार जातिरूप समानपना भाव एक हुआ, अतः सामान्यवाची एक तत्त्वके समानाधिकरणपनेसे सूत्रमें कहे गये जीव आदिकोंका बहुत्व प्रतिपादक बहुवचनान्तपना कहना विरुद्ध हो जाता है । आचार्य बताते हैं कि ऐसा कहना तो ठीक नहीं है, क्योंकि भाव और भाववान्में कथञ्चित् भेद करनेसे एक और अनेक पदार्थोंमें भी समानाधिकरणपना देखा जाता है । जैसे कि सत् (भाव ) और असत् (अभाव) दो ही तत्त्व हैं, यहां वैशेषिकोंने उद्देश्यदलमें द्विवचनान्त शब्द कहा है । और विधेयको एकवचनान्त कहा है। मीमांसकोंने " वेदाः प्रमाणम् " यहां चार वेदोंको उद्देश्य दलमें और सामान्यरूपसे एक प्रमाणको विधेयदलमें कहा है । इस प्रकार जैसे जातिमें एकपना अभीष्ट है, गेहूं अच्छा है, चना मन्दा है, पाप बुरा है, इस धनिकके पास पैसा है । सभीने यहां जातिकी अपेक्षासे एकवचन इष्ट किया है। तभी तो तत्त्वका एकवचनान्त प्रयोग है । उसीके समान घोडा, भेसा आदि व्यक्तियोंका सदा बहुतपना है । उसी बातको समझानेके लिये जीव आदिकोंका बहुवचनान्त कहा है। उन उद्देश्य और विधेयको एकवचन तथा बहुवचन होनेसे जैनसिद्धांतके अनुसार कोई विरोध नहीं आता है । इस बातका विश्वास कर लेना चाहिये, यही बात पहिले सूत्रमें भी समझ लेनी चाहिये ।
जीवत्वं तत्त्वमित्यादि प्रत्येकमुपवर्ण्यते । ततस्तेनार्यमाणोऽयं तत्त्वार्थः सकलो मतः ॥ २६ ॥
जीवका जो आत्मीय सम्पूर्ण परिणाम है वह जीवत्व तत्त्व है । अजीवका जो परिणमन है वह अजीवत्व है, इत्यादि । इस प्रकार प्रत्येक तत्त्वमें वर्णन कर लेना चाहिये । तिस कारण उस