Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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किं पुनस्तत्त्वमित्याहः—
फिर कोई शिष्य जिज्ञासा करता है कि वह तत्त्व क्या वस्तु है ? समझाइये, इस प्रकार प्रश्नकर्ताकी सविनय अभिलाषा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य महाराज उत्तर कहते हैंतस्य भावो भवेत्तत्त्वं सामान्यादेकमेव तत् । तत्सामान्याश्रयत्वेन जीवादीनां बहुत्ववाक् ॥ २४ ॥ भावस्य तद्वतो भेदात् कथञ्चिन्न विरुध्यते ।
व्यक्तीनां च बहुत्वस्य ख्यापनात्वतः सदा ॥
२५ ॥
सब पदार्थोंमें सामान्यपनेसे वर्तनेवाले सर्वादिगण में तत् शद्ब कहा गया है । तत् शवसे कोई भी विवक्षित अर्थ पकड़ा जाता है । उसका भाव ( परिणमन ) है वह तत्त्व कहा जाता है । सामान्य अपेक्षासे वह तत्त्व एक ही है । व्याकरण शास्त्र में और लोकमें भावको एकपना माना गया है, जैसे देवदत्त जिनदत्त और इन्द्रदत्तका जाना यहां व्यक्ति तो अनेक हैं, किन्तु उनका गमन करना एक समझा जाता है । अनेक छात्रोंका अध्ययन करना एक समझा जाता है, तैसे ही व्यक्तिरूपसे उन अनेक पदार्थोंका भावतत्त्व भी एक है । तत्त्व शद नपुंसकलिंग है, प्रथमा विभक्तिका एक वचन है, उसके सामान्यरूपसे आशय होजानेके कारण या समानाधिकरणपनेसे जीव, अजीव आदि अनेकों बहुपको कहनेवाले प्रथमा विभक्तिके जस् प्रत्ययसे युक्त पदका प्रयोग किया गया है। अच्छी बात तो यह है कि वचन, लिंग, और विभक्ति इन तीनोंका ही उद्देश्य और विधेय दलों में सामानाधिकरण्य बन जावे, जैसे कि देवाश्चतुर्णिकायाः, द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः । किन्तु जो श अजहल्लिंग हैं यानी बहुब्रीहिसमासके अतिरिक्त कहीं भी अपने लिंगको छोडते नहीं हैं अथवा भावप्रत्ययान्त शब्द हैं, जो कि प्रायः एकवचन ही बोले जाते हैं, उस स्थलपर वचन और लिंग के समानाविकरणपनेका नियम नहीं घट सकता है। हां ! समान विभक्ति अवश्य होनी चाहिये । यहा उद्देश्य और विधेय दलमें प्रथमा विभक्ति पडी हुयी है । किन्तु उद्देश्य वाक्य पुल्लिंग है और विधेयपद नपुंसकलिंग है तथा उद्देश्य बहुवचन है और विधेय एक वचन है । प्रकृत सूत्रमें भावकी भाववान् कथञ्चिद् अभेदविवक्षा करनेपर समानाधिकरणपना विरुद्ध नहीं पडता है । अन्य स्थानों में यही प्रसिद्ध नियम लागू होगा कि भावका भावके साथ समानाधिकरणपना है जैसे कि " सम्यज्ञानलं प्रमाणत्वम् " औष्ण्यमग्नित्वम् " अर्थात् सम्यग्ज्ञानपना ही प्रमाणपना है । उष्णता ही अग्निपना है । तथा भाववान्का भाववान् के साथ समानाधिकरण्य है । जैसे कि ज्ञानवान् आत्मा है, सींग सास्नावाली गौ है । जहां ही आत्मा है, वहां ही ज्ञानवान् है । जिस भूतलरूप अधिकरण में गौ है उसी भूतल में सींग सास्नावाली व्यक्ति भी है । स्याद्वाद के विना धर्म और धर्माका सामानाधिकरण्य नहीं बनता है । जैसे कि ज्ञान आत्मामें है और आत्मा शरीरमें है । उष्णता अग्निमें है और अनि 1