Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वाथै लोकवार्तिके
तद्वत् शद्वसामर्थ्यसे उन जीव आदिक पदोंके उच्चारण करनेपर सबके आदिमें जीवका कथन करना होगा। क्योंकि जितना कुछ भी तत्त्वोंका उपदेश है वह सब जीवके लिये उपयोगी है। भावार्थ-तत्त्वोंके कहनेका, सुननेका और पालन करनेका अधिकार और स्वामित्व सब जीव तत्त्वको ही प्राप्त है ।
प्रधानार्थस्तत्त्वोपदेश इत्ययुक्तं, तस्याचेतनत्वात् तत्त्वोपदेशेनानुग्रहासम्भवात् (द्) घटादिवत् । सन्तानार्थः स इत्यप्यसारं, तस्यावस्तुत्वेन तदनुग्राह्यत्वायोगात् । निरन्वयक्षणिकचित्तार्थस्तत्त्वोपदेश इत्यप्यसम्भाव्य, तस्य सर्वथा प्रतिपाद्यत्वानुपपत्तेः, संकेतग्रहणव्यवहारकालान्वयिनः प्रतिपाद्यत्वप्रतीतेः।।
___ यहां कापिल ( सांख्य ) कहते हैं कि तत्वोंका उपदेश करना आत्माकोलिये नहीं है। किन्तु सत्त्वरजस्तमोरूप प्रकृतिके लिये है । प्रकृति ही उपदेश देती है। प्रकृति ही उपदेशको सुनती है। और प्रकृति ही अपनेमें ज्ञानको उत्पन्न करती है, फिर आप जैनोंने तत्त्वोपदेशको आत्माके लिये कैसे कहा ? बताओ । आचार्य समझाते हैं कि इस प्रकार सांख्योंका कहना युक्तियोंसे शून्य है। क्योंकि वह प्रकृति अचेतन ( जड ) है। तत्त्वोपदेशसे जड पदार्थका उपकार होना घट, पट आदिके समान असम्भव है। वास्तवमें जीवके लिये ही उपदेश देना उपयोगी है।
बौद्ध कहते हैं कि वह तत्त्वोपदेश क्षणिक चित्तोंकी सन्तान ( लडी) के लिये उपयोगी है। भले ही व्यक्तियां नष्ट होजावें, किन्तु सन्तान तो बनी रहेगी। देशके सेवक अपने लिये नहीं किन्तु भविष्य सन्तानके लिये परोपकारमें लगरहे हैं । आचार्य बोलते हैं कि बौद्धोंका इस प्रकार कहना भी साररहित है। क्योंकि उस सन्तानको बोंद्धोंने वास्तविक अर्थ नहीं माना है । अनेक पहिले पीछे उत्पन्न हुए और होनेवाले क्षणोंका समुदाय सन्तान है, किन्तु सौगत लोगोंने एक क्षणवर्ती स्वलक्षण या विज्ञानको ही वास्तविक तत्त्व माना है । अतः सन्तानको अवस्तुपना हो जानेके कारण उसको उपकार्यपना नहीं बनता है जो अश्वविषाणके समान है ही नहीं, उपकारक तत्त्वोपदेश उस असत्का भला क्या उपकार कर सकता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। पुनः बौद्ध कहते है कि कुछ भी अन्वय नहीं रहते हुए क्षणक्षणमें नष्ट होनेवाले विज्ञानरूप चित्तके लिये तत्त्वोपदेश है । ग्रन्थकार बतलाते हैं कि यह कहना भी नहीं सम्भवता है । क्योंकि केवल एक समय ही जीवित रहनेवाले उस चित्तको प्रतिपाद्यपना ( श्रोतापना ) सभी प्रकारोंसे सिद्ध नहीं होता है। जो श्रोता संकेतकालसे लेकर व्यवहार कालतक अन्वयरूपसे विद्यमान रहता है, उसको समझाने योग्यपना ( शिष्यत्व ) प्रतीत होरहा है। भावार्थ-अनुभवी वृद्धके निकट अन्य उपायोंसे " इस शद्बके द्वारा यह अर्थ समझ लेना चाहिये " इस प्रकार शब्द और अर्थके साथ वाच्यवाचक सम्बन्धको ग्रहण करनेका समय सकेतकाल कहा जाता है और संकेतग्रहणके अनुसार उस शब्दके द्वारा पीछे समयोंमें व्यवहार करनेको व्यवहारकाल कहते हैं । जिस मनुष्यने श्रृंग [ सींग ] सासमा [ गलकम्बल ] वाली व्यक्तिमें