Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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स्वार्थ लोकवार्त
देता हुआ नहीं सुना गया है यों अनेक जीव परलोकके विषयमें या सर्वज्ञ, ज्योतिषचक्र, भूभ्रमणमें शंकित हो रहे हैं ।
चींटी, मक्खी, भोरी, मकडी आदिके मानसिक विचारपूर्वक किये गये चमत्कारक कार्योकी आलोचना कर नैयायिकों के अभिमत समान चींटी आदिमें भी मनइन्द्रियके होनेकी शंकायें बनाये रखते हैं । इसी प्रकार जैन धर्मात्माओं, या तीर्थस्थानों, अथवा जिनबिंब, जिनागम, आदिके ऊपर कई प्रकारकी विपत्तियां आ रही जानकर भी असंख्याते सम्यग्दृष्टि देव या जिनशासन रक्षक देवोंके होते हुये कोई एक भी देव यहां आर्यखण्ड में दिगंबर जैनधर्मका चमत्कार क्यों नहीं दिखाता है ? स्वर्ग, मोक्ष, असंख्यात द्वीप, समुद्र भला कहां हैं ? कुछ समझमें नहीं आता है ? आदि शंकायें बहुतों के मनमें चुभरही हैं । जव पुण्य, पापकी व्यवस्था है, तो अनेक पापी जीव सुखपूर्वक जीवन बिताते हुए और अनेक धर्मात्मापुरुष क्लेशमय जीवनको पूराकर रहे क्यों देखे जाते हैं ! वेश्याओंकी अपेक्षा कुलीन विधायें महान् दुःख भोग रही हैं ? शिकार खेलनेवाले, या धीवर, वधिक, बहेलिया, शाकुनिक, मांसभक्षी आदिको कोई भी जीव पुनः आकर नहीं सताता है । कतिपय बडे बडे धर्मात्मा मरते समय अनेक क्लेशोंको भुगतते हैं, जब कि अनेक पापी जीव सुखपूर्वक मर जाते हैं । धर्मका रहस्य अंधकारमें पडा हुआ है । यों अनेक संशय उपज बैठते हैं । 1 इसी प्रकार दूसरे अंगके प्रतिपक्ष दोषके अनुसार बडे बडे धर्मात्माओंको भी आकांक्षायें हो जाती हैं । नीरोगशरीर, दृढसुंदरशरीर, पुत्र, स्त्री, धनी, कुलप्राप्ति, प्रभुता, यशः, लोकमान्यताका मिलना; प्रकृष्टज्ञान, बल, राजप्रतिष्ठा की पूर्णता आदिमेंसे जिस किसी भी महत्त्वाधायक पदार्थक त्रुटि रहजाती है उसीकी आकांक्षा आजकलके जीवोंको कचित् कदाचित् हो ही जाती है । दिनरात कलह करनेवाली स्त्रीसे मनुष्यका जी ऊब जाता है, विचारा कहांतक संतोष करे । कुरूप, रोगी, क्रोधी, आजीविकाहीन, दरिद्र, मूर्खपतिमें सुन्दरी युवतीका चित्त कहांतक रमण कर सकता है ? इनको स्वानुकूल पत्नी या पतिकी आकांक्षा कदाचित् हो ही जाती है। चक्रवर्ती, विद्याधर, देव, इन्द्र, अहमिन्द्रोंके सुखोंको सुनकर अनेक भद्र पुरुषोंके मुखमें पानी आजाता है । आतुर विद्यार्थीका चित्त अच्छे व्याख्याताके व्याख्यानको सुनकर व्याख्याता बननेके लिये, एवं चित्रकार, अभिनेता, व्यापारी, शासक, आदि बननेके लिये जैसे लालायित हो जाता है, उसी प्रकार कतिपय दानी, पूजक, पुरुषों का भी चित्त अन्य विभूतियों को देखकर अधीनतासे बाहर हो जाता है ।
तीसरे विचिकित्सा दोषपर भी यह कहना है कि कितने ही बहिरंग धर्मात्माओंमें घृणाके भाव पाये जाते हैं । कितने पुरुष दुःखी जीवोंपर करुणा करते हैं ? या बीमार धार्मिक पुरुषोंके मल, मूत्र धोकर उनकी परिचर्यामें जा लगते हैं ? बताओ ? घृणा और भयके मारे कितने जीव अन्य पुरुषोंकी निःस्वार्थचिकित्सा या समाधिमरण करानेके लिये उद्युक्त रहते हैं ? स्यात् हजारों, लाखोंमें से कोई एक आध ही होगा ।
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