Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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भविष्य जन्ममें तीर्थंकर पदकी प्राप्तिके लिये अब षोडशकारण - भावनाओंको प्रतिदिन या विशेष रूपसे भाद्रपदमासमें पूजन कर भावते रहते हैं, उसी प्रकार वीतरागसम्यग्दर्शनकी प्राप्ति के लिये पच्चीस दोषोंको टालकर अष्टांग सम्यग्दर्शनके कारणोंका अभ्यास निरालस होकर तत्परता से करें ।
षोडशकारण भावनायें भी हमें आज ही यहां तीर्थंकरप्रकृतिका आस्रव नहीं करा देती हैं । न जाने कितने जन्मोंसे हम षोडशकारण भावनाओंकी पूजन करते चले आ रहे हैं । और आगे भी न जाने केवलिदृष्ट अनेक जन्मोंतक भावना भावनी पढें, तब कहीं कर्मभूमिके सम्यग्दृष्टि मनुष्यको केवलिद्वयके निकट तीर्थंकर प्रकृतिका बंध हो सकेगा । यदि कारणोंमें कमी रह गई तो यह सब विडम्बना व्यर्थ जायगी । मात्र थोडासा पुण्यबंध करा देगी | हां, समर्थकारण आपके अभीष्ट कार्यको निःसंशय सिद्धि कर देगा । जिस प्रकार नरक, तिर्यच, देव इन गतियोंमें असंख्याते सम्यग्दृष्टि जीव वर्तमानमें उपस्थित हैं, उसी प्रकार आजकल तीर्थकर प्रकृतिका बंध कर चुके भी असंख्याते जीव नरकगति, और देवगतिमें विद्यमान हैं । " तिरिये ण तित्थसत्तं " तिर्यग्गतिमें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी सत्ता नहीं पायी जाती है । आप बीसकोटाकोटिसागरके एक कल्पकालको ही लेलजियेगा । पूरे कल्पकालमें पांच मेरु संबंधी पांच भरत और पांच ऐरावत क्षेत्रोंमें मात्र चार सौ अस्सी तीर्थंकर जन्म लेते हैं । किन्तु एक सौ साठ विदेह क्षेत्रोंमें निकटकोटि पूर्ववर्षकी स्थितिवाले नाना असंख्यात तीर्थंकर एक कल्पकालमें हो जाने आवश्यक हैं । भावार्थ– दशकोटाकोटिसागर प्रमाण अवसर्पिणीकालके एक कोटाकोटिसागर स्थितिवाले चतुर्थ दुःषम सुषम कालमें अथवा उत्सर्पिणीके इतने ही परिमाणवाले तीसरे दुःषम कालमें विदेह क्षेत्रमें असंख्यात तीर्थकर वर्त्त जाते हैं ।
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यदि हम अवसर्पिणी कालके दशवें भागरूप चौथे कालके समयवर्ती विदेहक्षेत्रोंके लिये आवश्यक होरहे तीर्थंकरोंका ही ख्याल करें तो वर्तमानमें तीर्थंकर प्रकृतिबंधका टिकट ले चुके विद्यमान गहाशयोंसे पूरा नहीं पडसकता है । अधिकसे अधिक इनसे तेतीस सागरतकका काम चलालो । यद्यपि इतने कालके लिये भी मध्यमें बहुतसे तीर्थकर प्रकृतिका टिकट लेनेवालोंकी जरूरत पडेगी । फिर भी भविष्य में खरबों, नीलों गुणे जीव तीर्थंकर प्रकृतिको बांधेंगे । तब कहीं एक कोटाकोटिसागरकेलिये नियत तीर्थकर भरपूर होसकेंगे ।
उक्त विदेह क्षेत्रों में बीससे लेकर एक सौ साठतक तीर्थकरोंका शाश्वत बना रहना जरूरी हैं। विदेह क्षेत्रकी उत्कृष्ट आयुः कोटिपूर्ववर्ष यानी सात हजार छप्पनसंख ७०५६००००००००० वर्षोंसे दो कोटाकोटिसागरकाल असंख्यातगुणा है ।
छः महिने आठ समयमें छः सौ आठ जीव मोक्षको आवश्य जाते ही हैं ।
यो असंख्यातों वर्षवाले एक कल्पकाल या एक अवसर्पिणी कालमें असंख्याते जीवोंका ढाई