Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
मन्दबुद्धि, सूक्ष्मबुद्धि वाले श्रोता भव्यजीवोंका उपकार होजाता है । इस प्रकार कोई एक विद्वान् कह रहे हैं । कोई कोई श्रीअकलङ्क देवका अभिप्राय भी श्रीराजवार्तिक ग्रन्थ द्वारा ऐसा ही निकालते हैं । जैसा कि ऊपर कहा गया है ।
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ते न सूत्रकाराभिप्रायविदः । सप्तानामेव जीवादीनां पदार्थानां नियमेन मुमुक्षी: श्रद्धेयत्वज्ञापनार्थत्वादुपदेशस्य मध्यमरुचिविनेयानुरोधेन तु संक्षेपेणैकं तत्त्वं प्रपञ्चतश्चानन्तं मा भूत् सूत्रयितव्यम् । मध्यमोक्त्या तु द्वयादिभेदेन बहुप्रकारं कथनं सूत्रयितव्यं विशेषहेत्वभावात् । सप्तविधतत्त्वोपदेशे तु विशेषहेतुरवश्यं मुमुक्षोः श्रद्धातव्यत्वमभ्यवाप्येत परैः । कथम्
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अब श्री विद्यानंद आचार्य कहते हैं कि वे व्याख्याता जन तो सूत्रकार श्री उमास्वामी के अभिप्रायको जाननेवाले नहीं हैं । भगवान् श्रीउमास्वामी महाराजने सात ही तत्त्वोंका उपदेश दिया है। इससे सिद्ध है कि मोक्षाभिलाषी सम्यग्दृष्टीको जीव आदिक सात पदार्थोका ही नियमसे श्रद्धान करना उचित है । मोक्षके अनुपयोगी हो रहे ग्राम, नगर, खाद्य पेय, खेलना, आर्त्तध्यान, सुमेरु, घर्मा, स्वयम्भूरमण, महास्कन्ध वर्गणा आदि वस्तुभूतपदोंके श्रद्धानकी आवश्यकता नहीं है । यदि किसी विशिष्ट ज्ञानीको उक्त ग्राम आदिका ज्ञान हो भी जावे तो वह मोक्षके मार्गमें विशिष्ट उपयोगी नहीं पडता है, किन्तु इन सात तत्त्वोंका ही श्रद्धान करना मोक्षोपयोगी है । इस बातको सभी दार्शनिक स्वीकार करते हैं कि तत्त्वोंकी देशनाका विकल्प मोक्षमार्गमें उपयोगी तत्त्वोंकी अपेक्षासे हैं । अतः जीव आदिक सात तत्त्वोंको ही आवश्यक रूपसे श्रद्धान करने योग्य समझाने के लिये सूत्रकारने उपदेश दिया है । मध्यम रुचिवाले शिष्योंके अनुरोध से तो अत्यन्त संक्षेपसे एक ही तत्व है और अतीवविस्तारसे मनुष्य, तिर्यञ्च, सिद्ध, वैमानिक, आहारवर्गणा, भाषावर्गणा, द्वीप, समुद्र प्रभृतिके भेद प्रभेद आदि अनन्त तत्त्व हैं। इस प्रकार तो भलें ही सूत्र न किया जावे किन्तु मध्यम कथन करके दो, तीन, आठ, दस, बीस, तीस आदि भेद करके बहुत प्रकारके कथन सूत्र द्वारा किये जा सकते थे, तो फिर मध्यम रुचिवाले प्रतिपाद्यके लिये पूर्वोक्त एक महाशय विद्वानके अनुसार सात ही तत्त्वोंको निरूपण करनेमें कोई विशेष कारण दीखता नहीं है अर्थात् मध्यम रुचिवालोंके लिये छह द्रव्योंमें या दस, ग्यारह आदि भेदोंमें सब तत्त्वोंको गर्भित करनेवाला सूत्र भी बनाया जा सकता था। किन्तु सूत्रकारने सात ही प्रकारके तत्त्वोंका उपदेश दिया है, इसमें अवश्य कोई विशेष कारण है। और वह यही है कि मोक्षके चाहनेवाले जीवको इन ही सात प्रकारके तत्त्वोंका सब ओरसे श्रद्धान करना चाहिये । न्यून या अधिकका नहीं । अन्य प्रवादियों करके भी मोक्षके उपयोगी ही तत्त्वोंका श्रद्धान करना समझ लेना चाहिये । अधिकका हो भी नहीं सकता, और इनको छोडकर अन्य अनुपयोगी पदार्थोंका श्रद्धान हुआ भी तो बैलके ऊपर पाण्डित्यसम्पादनार्थ पुस्तकोंका बोझ लादने के