Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
१०१
समान व्यर्थ पडेगा । मोक्षके उपयोगी श्रद्धान करनेके विषयकी योग्यता जीव आदिक सात तत्त्वोंमें ही कैसे है ? सो सुनिये । अग्रिम वार्तिकोंमें इसीका समाधान है।
मोक्षस्तावद्विनेयेन श्रद्धातव्यस्तदर्थिना । बन्धश्च नान्यथा तस्य तदर्थित्वं घटामटेत् ॥ ४ ॥
सबसे पहिले उस मोक्षके अभिलाषी विनीत शिष्य करके मोक्षतत्त्वका श्रद्धान करना तो आवश्यक है और बन्धतत्त्व भी श्रद्धान करने योग्य है । अन्यथा वर्तमान में उन कर्मोसे बन्धे हुए शिष्यकी उस मोक्षके लिए अभिलाषा करना घटित न हो सकेगा, अर्थात् जो जीव अपनेको बन्धे एका विश्वास नहीं करता है, वह अनंत सुखवाली मोक्षका इच्छुक नहीं हो सकता है, अतः मोक्ष और बन्धतत्त्व तो श्रद्धान करने योग्य सिद्ध हुए।
आस्रवोऽपि च बन्धस्य हेतुः श्रद्धीयते न चेत् । क्वाहेतुकस्य बन्धस्य क्षयो मोक्षः प्रसिध्द्यति ॥ ५॥
और यदि बन्धके कारण हो रहे आस्रवका भी श्रद्धान न किया जावेगा तब तो हेतुओंसे रहित माने गये बन्धका क्षय होना भला मोक्षपदार्थ कहां प्रसिद्ध हो सकेगा ? । अर्थात् बन्धतत्त्व पहिले ही श्रद्धान करने योग्य मान लिया है । यदि उसका कारण आस्रवतत्त्व न माना जावेगा तो बन्ध नित्य हो जावेगा। क्योंकि जो सत् पदार्थ अपने जनक कारणोंसे रहित है, वह द्रव्य दृष्टिसे नित्य है, तब तो जीव आकाश आदि द्रव्योंके समान बन्ध भी नित्य हो जावेगा। ऐसी दशामें बन्धका क्षय न हो सकेगा और मोक्ष भी न हो सकेगी । अथवा यदि पर्याय दृष्टिसे बन्धका कोई कारण नहीं है तो बन्ध असत् हुआ । अश्वविषाणके समान असत् पदार्थका क्षय भी असत् है । तब तो बन्धका क्षय मोक्ष भी असत् है । असत्के लिए किया गया यत्न फलवान् नहीं होता है, अतः बन्धके हेतु आस्रव तत्त्वका भी श्रद्धान करना चाहिए।
बन्धहेतुनिरोधश्च संवरो निर्जरा क्षयः । पूर्वोपात्तस्य बन्धस्य मोक्षहेतुस्तदाश्रयः॥ ६॥ जीवोऽजीवश्च बन्धस्य द्विष्ठत्वात्तत्क्षयस्य च । श्रद्धेयो नान्यदाफल्यादिति सूत्रकृतां मतम् ॥ ७॥
और बन्धके कारणोंका रुकजाना रूप संवर तथा पूर्वकालमें इकठे किये बन्धका एक एक देशरूप क्षय होना निर्जरा ये दोनों मोक्षके कारण हैं। अतः इन संवर और निर्जरा तत्त्वोंका श्रद्धान