Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थकोकार्तिके
जाते हैं । ऐसी दशामें प्रशम, आदिको सम्यग्दर्शनका अभिव्यंजक हेतु मानने पर व्यभिचार दोष आता है । श्रीविद्यानंदि स्वामीने इस शंकाका बढिया उत्कट उत्तर यों दिया है कि उन मिथ्यादृष्टियोंके अनंतानुबंधी मान, या माया, लोभ अवश्य हैं । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, आदि प्राणियोंकी हिंसा उनमें पायी जाती है । अन्य भी कतिपय दोष हैं । सूक्ष्म गवेषणा करो। .....
उपर्युक्त निरूपणसे वही श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीवाला सिद्धान्त पुष्ट होता है कि जब संख मनुष्योंमें एक सम्यग्दृष्टि गणनामें आता है, तब आजकलके तेरह लाख जैनोंमें तो स्यात् कोई ही सम्यग्दृष्टि होय ? अथवा जिनपूजन, आत्मध्यान, स्वाध्याय, आदि करनेवालोंके पूरे जन्ममें दो, चार बार कुछ मिनिटोंके लिए होगये उपशम या क्षयोपशम सम्यक्त्वका हिसाब लगा लिया जाय तो अतिशयोक्ति अनुसार दश बीस या कुछ अधिक व्यक्ति सम्यग्दृष्टि कह दिये जाय । 'गणितज्ञ पाठकोंको सौ संख या १० नील नामकी संख्या और तेरह लाख जैन तथा उनकी सत्तर, अस्सी वर्षकी अवस्थाका लक्ष्य रख त्रैराशिक बनानी चाहिये।
वियोगान्त नाटकके सदृश इस वक्तव्यको हम दुःखान्त समाप्त नहीं करना चाहते हैं । अतः पाठकजन भविष्य विवेचनपर भी गंभीरदृष्टि डालें।
जैन बंधुओंको धार्मिक क्रियाओंमें और शांति, वैराग्य, आदि शुभ परिणामोंमें, निःशंकित आदि गुणोंमें अपनी प्रवृत्ति शिथिल नहीं कर देनी चाहिये । प्रत्युत धार्मिक प्रवृत्तियोंको बढाते रहना चाहिये । हमें अपने धार्मिक संस्कारोंको दृढ करना है। अपनेको व्यवहार सम्यग्दृष्टि माने रहनेका विश्वास और तदनुसार धार्मिक वृत्तिको बताते रहना चाहिये।
बात यह है कि सिद्धपरमात्माओंमें जो अनन्तगुण प्रकट हो गये हैं, वे शक्तिरूपसे प्रत्येक संसारी आत्मामें भी छिपे हुये हैं । निमित्तोंके मिलानेपर वे गुण व्यक्त हो सकते हैं। एक दो बारमें ही छोटासा साधन मिला देनेपर कोई गुण झट प्रकट नहीं हो जाता है किन्तु विद्यार्थीके समान हजारोंबार अभ्यास करते करते संभवतः कोई गुण प्रकट होसकता है। छोटेसे वाणिज्य कर्म, टैनिस, पोलो खेलना, व्याख्यान देना आदि लौकिक कलाओंकी प्राप्तिके लिये जब अत्यधिक परिश्रम,अभ्यास आवश्यक है तो अलौकिक, सर्वोत्तम, मोक्षोपयोगी, सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी प्राप्ति तो हजारों, लाखों बार किये गये पुरुषार्थीका फल निःसंदेह होना ही चाहिये।
आप दृढ विश्वास रखें कि वर्तमान जैनोंके देव, शास्त्र, गुरुका श्रद्धान या प्रशम आदि कर्त्तव्य व्यर्थ नहीं जायेंगे | प्रत्युत वे भविष्यके अव्यभिचारी हेतु होरहे प्रशम आदिमें गहरे संस्कार जमा देंगे, जिससे कि अग्रिम जन्मोंमें तो सम्यग्दर्शन हो सकेगा।
देवगतिमें तो असंख्याते सम्यग्दृष्टि हैं । तेरह लाख या तेरह सौ लाख भी भारतवर्षीय जैन यदि सम्यग्दर्शनके कारणोंका अभ्यास करें तो परभवमें जन्म लेते हुये सम्यग्दृष्टि देवोंकी संख्यामें केवल असंख्यातवां भाग बढ़ जायगा । अतः मैं प्रत्येक साधर्मीजनसे प्रेरणा करूंगा कि वे जैसे