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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ९५ भविष्य जन्ममें तीर्थंकर पदकी प्राप्तिके लिये अब षोडशकारण - भावनाओंको प्रतिदिन या विशेष रूपसे भाद्रपदमासमें पूजन कर भावते रहते हैं, उसी प्रकार वीतरागसम्यग्दर्शनकी प्राप्ति के लिये पच्चीस दोषोंको टालकर अष्टांग सम्यग्दर्शनके कारणोंका अभ्यास निरालस होकर तत्परता से करें । षोडशकारण भावनायें भी हमें आज ही यहां तीर्थंकरप्रकृतिका आस्रव नहीं करा देती हैं । न जाने कितने जन्मोंसे हम षोडशकारण भावनाओंकी पूजन करते चले आ रहे हैं । और आगे भी न जाने केवलिदृष्ट अनेक जन्मोंतक भावना भावनी पढें, तब कहीं कर्मभूमिके सम्यग्दृष्टि मनुष्यको केवलिद्वयके निकट तीर्थंकर प्रकृतिका बंध हो सकेगा । यदि कारणोंमें कमी रह गई तो यह सब विडम्बना व्यर्थ जायगी । मात्र थोडासा पुण्यबंध करा देगी | हां, समर्थकारण आपके अभीष्ट कार्यको निःसंशय सिद्धि कर देगा । जिस प्रकार नरक, तिर्यच, देव इन गतियोंमें असंख्याते सम्यग्दृष्टि जीव वर्तमानमें उपस्थित हैं, उसी प्रकार आजकल तीर्थकर प्रकृतिका बंध कर चुके भी असंख्याते जीव नरकगति, और देवगतिमें विद्यमान हैं । " तिरिये ण तित्थसत्तं " तिर्यग्गतिमें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी सत्ता नहीं पायी जाती है । आप बीसकोटाकोटिसागरके एक कल्पकालको ही लेलजियेगा । पूरे कल्पकालमें पांच मेरु संबंधी पांच भरत और पांच ऐरावत क्षेत्रोंमें मात्र चार सौ अस्सी तीर्थंकर जन्म लेते हैं । किन्तु एक सौ साठ विदेह क्षेत्रोंमें निकटकोटि पूर्ववर्षकी स्थितिवाले नाना असंख्यात तीर्थंकर एक कल्पकालमें हो जाने आवश्यक हैं । भावार्थ– दशकोटाकोटिसागर प्रमाण अवसर्पिणीकालके एक कोटाकोटिसागर स्थितिवाले चतुर्थ दुःषम सुषम कालमें अथवा उत्सर्पिणीके इतने ही परिमाणवाले तीसरे दुःषम कालमें विदेह क्षेत्रमें असंख्यात तीर्थकर वर्त्त जाते हैं । ०००००००० यदि हम अवसर्पिणी कालके दशवें भागरूप चौथे कालके समयवर्ती विदेहक्षेत्रोंके लिये आवश्यक होरहे तीर्थंकरोंका ही ख्याल करें तो वर्तमानमें तीर्थंकर प्रकृतिबंधका टिकट ले चुके विद्यमान गहाशयोंसे पूरा नहीं पडसकता है । अधिकसे अधिक इनसे तेतीस सागरतकका काम चलालो । यद्यपि इतने कालके लिये भी मध्यमें बहुतसे तीर्थकर प्रकृतिका टिकट लेनेवालोंकी जरूरत पडेगी । फिर भी भविष्य में खरबों, नीलों गुणे जीव तीर्थंकर प्रकृतिको बांधेंगे । तब कहीं एक कोटाकोटिसागरकेलिये नियत तीर्थकर भरपूर होसकेंगे । उक्त विदेह क्षेत्रों में बीससे लेकर एक सौ साठतक तीर्थकरोंका शाश्वत बना रहना जरूरी हैं। विदेह क्षेत्रकी उत्कृष्ट आयुः कोटिपूर्ववर्ष यानी सात हजार छप्पनसंख ७०५६००००००००० वर्षोंसे दो कोटाकोटिसागरकाल असंख्यातगुणा है । छः महिने आठ समयमें छः सौ आठ जीव मोक्षको आवश्य जाते ही हैं । यो असंख्यातों वर्षवाले एक कल्पकाल या एक अवसर्पिणी कालमें असंख्याते जीवोंका ढाई
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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