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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके द्वीपसे मोक्ष जाना अनिवार्य है । इस हमारे भरतक्षेत्रसे इस अवसर्पिणीकालमें तीर्थकर तो चौवीस ही मोक्ष गये हैं । किन्तु सामान्य केवलीगत चौथे कालमें इस भरतक्षेत्रसे असंख्याते मोक्ष जा चुके हैं। निर्वाण काण्डमें गिनाई गई सिद्धक्षेत्रों और मुक्तजीवोंकी नियत संख्या तो मात्र आरातीय थोडेसे चौथे कालकी है। पूरे दुःषमसुषम कालके सिद्धक्षेत्रों और केवलज्ञानियोंको यदि गिना जाय तो उससे कहीं संख्यातगुणे, और असंख्यातगुणे गणना प्राप्त होंगे। इसी प्रकार जम्बूद्वीपके बतीस विदेहक्षेत्रोंसे गत चौथे कालमें असंख्याते सामान्य केवली और उनसे कम असंख्यात तीर्थकर महाराज मुक्तिलाभ करचुके हैं । तब तो एक कल्पकाल या उत्सर्पिणी कालकेलिये असंख्याते तीर्थकरोंके होजानेकी आवश्यकता है, जो कि तेरहवें गुणस्थानमें तीर्थकर प्रकृतिका उदय होजानेपर समवसरणमें उपदेश देते रहें। पहिले, दूसरे, तीसरे, नरक, या वैमानिक देवोंसे आकर पन्द्रह कर्मभूमियोंमें तीर्थंकर महाराज जन्म लेते हैं। नरकोंके एक, तीन, सात, सागर या वैमानिक देवोंके दो आदि तेतीस सागर ये सब कोटिपूर्व वर्षसे असंख्यातगुणे अधिक हैं और कल्पकाल इन सागरोंसे मात्र संख्यातगुणा बढा हुआ है, अर्थात् पांच, छह नील या लगभग पचास साठ, नीलगुणा अधिक है। _यों मानना पडता है कि इस समय भी असंख्याते जीव तीर्थकर नामकर्म बंधकी टिकट लेकर तीन नरकों या मनुष्य भोगभूमियों और वैमानिक देवोंमें प्लेटफार्मपर विराज रहे हैं। यह टिकट विदेहक्षेत्रसे आजकल भी बट रहा है, और भविष्यमें भी अनवरत बटेगा । कल्पकालके लिये भविष्यमें भी जीव तीर्थकर प्रकृतिको बांधेगे । किन्तु इस. समथ भी जीव भंडारमें तीर्थंकर प्रकृतिको बांधे हुये अनेक आत्मायें विद्यमान हैं । जो कि वहांसे चयकर कर्मभूमिमें मनुष्यजन्मरूपी रेलगाडीमें बैठकर तपस्याद्वारा घातिकर्मीका नाशकर असंख जीवोंको मोक्षमार्गका उपदेश देते हुये परमेष्ट स्थानलाभ करेंगी। भोगभूमिवालोंको देव होनेके पश्चात् उक्त अवस्था प्राप्त होगी। यहां हमें कहना यह है कि हमारे आपके परलोकगत पिताजी, बाबाजी, पडबाबा, बुआ, माता, दादी, पडदादी आदि पूर्वज [ पुरिखा ] जनोंने अनेक बार षोडशकारण भावनाओंकी पूजाकर यदि सम्यग्दर्शन सहित होकर यहांसे मृत्यु प्राप्त की थी होय, तब तो वे वैमानिकदेव होकर पुनः तीसरे जन्ममें विदेहक्षेत्रोंमें या यहां ही केवलिद्वयके निकट तीर्थकर प्रकृतिके आस्रवकी योग्यता प्राप्त कर लेंगे । और यदि षोडशकारण भावनाओंका अभ्यासकर उन्होंने पुनः मिथ्यात्व अवस्थामें प्राणत्याग किया होय तब तो संभवतः न्यूनतम अगले जन्ममें ही विदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर केवली श्रुतकेवलीके निकट वे तीर्थंकरप्रकृति बंधकी योग्यता प्राप्त कर चुके होंगे। जो शुभकार्य पुरिखाओंने किये हैं, आप भी उनके पदोंपर चले चलिये । आज्ञाप्रधानी और परीक्षाप्रधानी जिनभक्तोंको यह व्यवस्था दृढतया गांठ बांध लेनी चाहिये कि जिस प्रकार " सोलह कारण भाय तीर्थकर जे भये" " कंचनझारी निर्मलनीर " दरशविशुद्धि धरै जो कोई " यजाम्यहं
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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