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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
षोडशकारणानि ” इत्यादि रूपसे पूजन करनेवालोंके संस्कार उस नितान्त दुर्लभ तीर्थंकर प्रकृतिका आस्रव करानेके लिये प्रतिदिन बढते जाते हैं, कुछ काल पीछे भवान्तरोंमें वे अपने मनोरथ सिद्धिकी शिखरपर पहुंच जायेंगे । उसी प्रकार ततोप्यधिक प्रकाण्ड दुर्लभ हो रहे सम्यग्दर्शनके परंपराकारणोंका अभ्यास करते करते हम और आप अपने मनोवांछित सम्यग्दर्शन गुणको प्राप्त कर लेवेंगे । किसी भी कार्यके लिये जल्दी मचाना अच्छा नहीं है ।
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अनादि कालकी अविद्यापूर्ण अक्षय अनंतताको विचारिये ? और इस समय पूर्व जन्मके पुण्यवश प्राप्त होगये श्रेष्टकुल, पंचेंद्रिय, जिनालय, जिनागम, सत्संग, प्रवचन, श्रद्धान आदि सहकारी सामग्रीपर लक्ष्य दो। यह संस्कारवर्धक लाभ भी क्या थोडा है ? शनैः शनैः दुर्लभ सभ्यग्दर्शन भी प्राप्त हो ही जायगा । विचारशीलोंको इतनेसे ही संतोष कर लेना चाहिये । भद्रमस्तु ।
नैसर्गिकीं वृत्तिमधिष्ठितोखिल - ( जनौ । चा - ) श्रान्योपदेशात्तवपुर्गुणेश्वरः ।। सम्यक्त्वमापूर्य गुणान्जसंहतौ । सद्दृष्टिभानुर्जगति प्रवर्धताम् ( प्रकाशताम् ) ||१||
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अब अग्रिम सूत्रके लिये अवतरण उठाते हैं
किं तत्त्वं नाम येनार्यमाणस्तत्त्वार्थ इष्यते । इत्यशेषविवादानां निरासायाह सूत्रकृत् ॥
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. तत्त्वार्थोके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। यहां प्रश्न है कि वह तत्त्व भला कौनसा पदार्थ है ? जिस करके कि निर्णीत किया गया अर्थ तत्त्वार्थ माना जाता है । इस प्रकार सम्पूर्ण विवादोंका निराकरण करनेके लिये सूत्रकार उमास्वामी महाराज तत्त्वोंके प्रतिपादक सूत्रको कहते हैं
जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥४॥
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं । तत्त्व शब्द भाववाच है, फिर भी पर्याय और पर्यायीका अभेद होनेके कारण भाववान्के साथ उसका समानाधिकरण जाता है । स्याद्वाद सिद्धान्तमें कोई विरोध नहीं आता है ।
तत्त्वस्य हि संख्यायां स्वरूपे च प्रवादिनो विप्रवदन्ते तद्विप्रतिपत्तिप्रतिषेधाय सूत्रमिदमुच्यते । तत्र जीवादिवचनात्:--
- जिस कारण से कि तत्त्वोंकी संख्यामें और तत्त्वके स्वरूपमें अनेक प्रवादी लोग अपनी अपनी प्रकर्षताको बखानते हुए विवाद कर रहे हैं, तिस कारण उन विवादोंका निषेध करनेके लिये यह सूत्र कहा जाता है । तहां सूत्रमें जीव आदिकोंको ही तत्त्व कहनेसेः -- ( इसका अन्वय अग्रिम . वार्तिकसे जोड लेना )
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