Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
यहां शंका है कि आप जैनोंने अभी कहा है कि मतिज्ञान ( सुमति ज्ञान ) से जाने हुए तत्त्व अर्थमें निसर्गसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है, किन्तु यह बात सिद्धान्तसे विरुद्ध पडती है । क्यों कि सम्यग्दर्शनके साथ ही सुमति या सुश्रुत अथवा अवधिज्ञानकी उत्पत्ति मानी गई है। पूर्वकालमें नहीं, किंतु आप जैनोंने उस सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेसे पहिले भी मतिज्ञान (सुमतिज्ञान ) आदिकी सत्ता मानली है । अतः दर्शनके साथ मतिज्ञानकी उत्पत्तिके सिद्धान्तका विघात होता है । ग्रंथकार समझाते हैं कि इस प्रकारका कहना तो ठीक नहीं है । क्यों कि यद्यपि सम्यग्दर्शनसे पहिले कालमें रहनेवाला ज्ञान सुमतिज्ञान या अवधिज्ञान नहीं है । फिर भी सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करानेकी योग्यतावाला पूर्वसमयवर्ती सामान्यज्ञान या कु
ज्ञान उपचारसे सुमति और अवधिरूप हैं ऐसा व्यवहार है । वास्तवमें तो सम्यग्दर्शनके समान कालमें ही सुमति और अवधि आदि की उत्पत्ति होती है । प्रत्येक कार्यकी पूर्ववर्ती पर्यायोंको उपचारसे तद्रूप कहनेमें कोई क्षति नहीं हैं। सहारनपुरके निकट स्थान भी सहारनपुर समझा जाता है । एक कम लक्ष रुपयोंको भी लक्ष रुपया कह सकते हैं । सामायिकमें स्थित गृहस्थको भी महाव्रतीके समान माना है । केवलज्ञानके उत्पादक बारहवें गुणस्थानके पूर्ण श्रुतज्ञानका केवलज्ञानका व्यपदेश है, जैसे कि कमलको उत्पन्न करनेवाली बीजसहित कीचडकी अन्तिम अवस्था कमलरूप ही है । उस कमलसे ही दूसरे समयमें कमल उत्पन्न हो गया है, कोरी कीचड से नहीं । अतः साक्षात् या परम्परासे क्षयोपशम आदि चार लब्धियोंके पीछे होनेवाले चारित्रगुणके विभावरूप अधः करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तकरणकी अवस्थाओंमें हो रहे मिथ्याज्ञानको मतिज्ञानपना और अवधिज्ञानपना अभीष्ट है । वास्तवमें देखा जावे तो तीनों करणोंके समयोंमें मिथ्यात्वकर्मका उदय है । अतः सम्यग्दर्शन गुणका मिथ्यात्वरूप विभाव परिणाम है तथा चारित्रगुणकी करणत्रयरूप परिणति है । किंतु इस अन्तर्मुहूर्तमें सम्यग्दर्शनकी कारणसामग्री एकत्रित हो चुकी है तथा प्रतिपक्षी कर्मोंके अनुभाग काण्डक, स्थितिकाण्डकोंको घात और गुणसंक्रमण तथा गुणश्रेणी निर्जराकी विधि भी अपूर्वकरण अवस्थामें हो जाती है । उसके पहिले अधःकरणदशामें अनन्तगुणी विशुद्धि की वृद्धि, स्थितिबन्धापसारण, प्रशस्त प्रकृतियोंका प्रति समय अनन्तगुणा बढता हुआ गुड, खांड, मिश्री और अमृत सदृश अनुभाग होना तथा अप्रशस्त प्रकृतियोंका निम्ब कांजीर सदृश अनुभागवाला होना ये चार आवश्यक बातें हो चुकी हैं। अनिवृत्तकरणरूप परिणाम तो उत्तरकालमें सम्यग्दर्शनको उत्पन्न ही करते हैं । अतः उपशम सम्यक्त्वके उत्पादक सामग्रीमें पडे हुए ज्ञानको समीचीन ज्ञान ही कल्पित किया है | और क्षयोपशम सम्यक्त्वके पूर्ववर्ती ज्ञानको भी उपचारसे समीचीनज्ञानपना है । परीक्षा देकर उत्तीर्ण हो जानेवाला छात्र उत्तर कापियोंके लिखे जानेपर ही उत्तीर्ण हो चुका, किंतु फल प्रकाशित होनेके पहिले कुछ कालतक वह निर्णीतरूपसे उत्तीर्ण नहीं कहा जा सकता है । मिथ्याव गुणस्थानके आदिवर्त्ती या मध्यवर्ती मिथ्याज्ञानमें और अन्तवर्ती मिथ्याज्ञानमें भारी अंतर है, द्रव्य
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